उत्तराखण्ड में गोरखा शासन(Gorkha rule in Uttarakhand)
गोरखों के आक्रमण के समय कुमाऊँ की राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक दशा अच्छी न थी। जनवरी 1790 में हस्तिदल चौतररिया (चौतरिया बहादुरशाह), काजी जगजीत पाण्डे, सेनापति अमरसिंह थापा एवंशूरवीर सिंह थापा के नेतृत्व में गोरखा वीरों ने काली नदी पार कर दो मार्गों से अल्मोड़ा की ओर आये। 1790 में कुमाऊं पर आक्रमण के समय नेपाल का शासक रणबहादुर शाह था। जो 1778 ई में गद्दी पर बैठा था। यह बाद में साधु बन गया और अपना नाम स्वामी निर्गुणानंद रखा। ये तीन वर्ष की अवस्था में गद्दी पर बैठे। इनकी संरक्षिका राजेन्द लक्ष्मी या इंन्द्रलक्ष्मी थी। रणबहादुर शाह ने ही सर्वप्रथम नेपाल में सोने की मुद्रा चलाई।
एक दल झूलाघाट से सोर होता हुआ गंगोलीहाट व सेराघाट की ओर बड़ा तथा दूसरा दल सीधे बिसुंग होते हुए अल्मोड़ा की ओर बड़ा और गोरखों को रोकने के लिए महेन्द्रचंद गंगोली की ओर बड़ा किन्तु सब निरर्थक सिद्ध हुआ। महेन्द्रचंद का चाचा लाल सिंह एक सैनिक टुकड़ी के साथ काली कुमाऊँ की ओर चल पड़ा। प्रारम्भ में महेन्द्रचंद ने अमर सिंह थापा की फौज को शिकस्त देते हुए उसे काली कुमाऊँ की आर लौटने के लिए मजबूर कर दिया। किन्तु गैतोड़ा गांव में गोरखों ने लाल सिंह को छकाते हुए उसके दो सौ से अधिक सैनिकों को परलोक भेज दिया। फलतः लाल सिंह भाग कर मैदान की ओर चल पड़ा। महेन्द्र चंद लाल चंद की सहायतार्थ गया लेकिन वह भी हारकर कोटाबाग भाग गया। यहां लाल सिंह से उसकी मुलाकात हुई। गोरखे बिना डरे अल्मोड़ा की ओर बड़े और 1790 में उन्होंने अल्मोड़ा में प्रवेश किया। इस समय हर्षदेव जोशी भी उनके साथ था।
इस प्रकार गोरखों ने अल्मोड़ा में अत्याचार शुरू कर दिए और कुमाऊँ में हाहाकार में मच गया। गोरखे दो ही ब्राह्मणों पाण्डे और उपाध्याय को मानते थे। कुमाऊँ में गोरखों ने 1790 से लेकर 1815 तक शासन किया। उनका अधीश्वर नेपाल में शासन करता था। और कुमाऊँ में जैसे प्रान्तों में गवर्नर शासन करता था। जिन्हें सूब्बा या सूबेदार कहा जाता था। कुमाऊँ में गोरखों का अधिकार हो जाने के बाद जोगा मल्ल शाह को कुमाऊँ में सुब्बा नियुक्त किया। 1806 में बमशाह जिन्हें बड़ा बमशाह कहा गया है सुब्बा बने। सुब्बा की सहायता के लिए काजी व एक सैनिक अधिकारी भी होता था जिसे नायब सुब्बा कहा जाता था।
गोरखों का गढ़वाल पर आक्रमण (Invasion of Gurkhas on Garhwal)
सन् 1790 में जब गोरखा सेनापति अमरसिंह थापा ने कुमाऊँ की राजधानी अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया तो गोरखा का ध्यान अब गढ़वाल विजय की ओर गया। 1791 में हर्ष देव की सहायता से गोरखों ने गढवाल पर हमला करने की योजना बनाई लेकिन सफल न हो सके और 1804 में गढ़वाल पर आधिपत्य किया।
गोरखों के विभिन्न सेनानायकों का नेतृत्व(Leadership of various generals of Gurkhas)
अमर सिंह थापा (Amar Singh Thapa)(1804-1815 ई)
- तत्कालीन नरेश रणबहादुर ने अमरसिंह थापा को 1804 से 1815 तक नेपाल दरबार की ओर से काली नदी से लेकर सतलज पार तक के विजित प्रदेश का सर्वोच्च न्यायाधीश नियुक्त किया।
- यह ऐसा प्रशासक था जो कुमाऊं और गढवाल दोनों का प्रशासक रहा।
- यह गढवाल का पहला प्रशासक था जिसे 1804 में रणबहादुर शाह ने नियुक्त किया था।
- इसे नेपाल सरकार का सर्वोत्तम काजी की उपाधि दी गयी। जो कि नेपाल सरकार द्वारा दी जाने वाली सर्वोच्च उपाधि थी।
- अमरसिंह व आक्टरलोनी के बीच 1815 में मलावगढ की संधि हुयी।
- इनके अधीन हस्तीदल चौतरिया को नायब सुब्बा तथा काजी रणधीर सिंह बसन्यात को गढ़वाल में सेनापति पद दिया गया।
- अमरसिंह थापा हिमांचल व कांगड़ा अभियान में जाता रहा इसलिये शासन रणजोर सिंह के हाथों में आ गया।
- रणजोर सिंह अमर सिंह थापा का पुत्र था।
रणजोर सिंह थापा (Ranjor Singh Thapa)(1804-1805ई)
- रणजोर सिंह थापा दयालु व सरल स्वभाव का व्यक्ति था।
- वह विद्वानों व कलाविदों का अत्यधिक सम्मान करता था।
- गढ़वाल के प्रसिद्ध चित्रकार एवं कवि मौलाराम पर उसकी विशेष कृपा थी। जिस कारण मौलाराम ने रणजोर सिंह को कर्ण की उपमा से विभूषित किया।
- रणजोर सिंह ने सभा मंडली का गठन किया जिससे शासन का संचालन करने में आसानी हुयी।
- गढवाल में नियुक्त राज्याधिकारी हिमांचल की विजय व कांगड़ा के दुर्ग के घेरे में व्यस्त रहते थे इसलिये तब तक गढवाल का राजकाज संभालने के लिये रणजोर सिंह ने विचारी अर्थात जज व अचारी अर्थात अधिशासक पदों का सृजन किया।
- गोरखों ने महंत हरिसेवक पर हत्या का आरोप लगाकर कढ़ाई दीप कराया और उनके दोनों हाथ जल गए।
हस्तीदल चौतरिया(Hastidal Chautaria)(1805-1808 ई)
- यह शांत प्रकृति का शासक था।
- इसने कृषकों के लिये कार्य किया व कृषि की उन्नति के लिए इसने तकावी ऋण दिए तथा लगान की दर घटा दी।
- रेपर का गढ़राज्य में आगमन 1808 ई में इसी के काल में हुआ था।
- रेपर को कंपनी सरकार ने भेजा ताकि गढ़राज्य से होते हुए वे तिब्बत से व्यापार कर सकें।
- हस्तीदल चौतरिया की मृत्यु गणनाथ डांडा के युद्ध में हुयी।
भैरों थापा(Bhairon Thapa)(1808-1811 ई)
- भैरों थापा नृशंस, अत्याचारी एवं क्रूर शासक था।
- इसके सहायक भारादार छन्नू भण्डारी, बुद्धि थापा, परशुराम थापा तथा जमादार दून्तिराना भी भैरों की भांति ही बर्बर थे।
- गढ़राज्य में प्रवेश करते ही भैरों को नेपाल दरबार ने कागड़ा अभियान का आदेश दिया।
- भेरों की अनुपस्थिति में आमिलों, भारादारों ने जनता को लूटना प्रारम्भ कर दिया।
- मौलाराम ने सरकार को इस दुर्दशा से अवगत कराया किन्तु इसका फल मौलाराम को भुगतना पड़ा।
- चौतरिया के शासन काल में रण बहादुर चंद्रिका की रचना कर मौलाराम को नेपाल दरबार ने प्रसन्न होकर जो सनद एवं जागीर दी थी वह तत्कालीन गोरखा भागीदार ने छीन ली थी।
- इसके काल में कंपनी के लिए भांग का उत्पादन एवं लीसे का व्यापार होने लगा।
काजी बहादुर भण्डारी(Qazi Bahadur Bhandari) (1811-1812 ई)
- इनके काल में 1812 में भूमि बंदोबस्त हुआ।
- उर्वरता की दृष्टि से रखकर भूमि को गढ़वाल में अव्वल, दम, सोम, चाहर तथा सूंखवासी पांच भागों में विभाजित किया गया।
- गोरखा काल में शिल्पकर्मियों को (कामी कहा जाता था सुनार को सुनवार व नाई को नौ कहा जाता था।
- ब्राह्मण दासों को कठुआ कहा जाता था।
- हार्डविक व रेपर नामक यूरोपीय यात्रियों ने गोरखों के कुकृत्यों का बड़ा ही हृदय विदारक वर्णन प्रस्तुत किया है।
गोरखों की न्याय प्रणाली(Justice System of Gorkhas)
गोरखों की न्याय व्यवस्था प्रांतों में सुब्बा, नायब सुब्बा, सेना का कमाण्डर व अन्य फौजी सरदार तय करते थे। अल्मोड़ा में उस समय गोरखों की अदालत अवश्य थी जिसका जज या न्यायाधीश विचारी कहलाता था। अदालत के अन्य न्यायकर्ताओं को सभा कहा जाता था। गोरखों की न्याय व्यवस्था में अदालत में वादी व प्रतिवादी को बुलाकर उनकी परीक्षा ली जाती थी।
यदि किसी गवाह के बयान पर संदेह पैदा होता तो उसके सिर में महाभारत के एक भाग हरिवंश उसे सही-सही कसम खिलाने के लिए रख जाता था। जहां गवाह नहीं मिलते थे वहां दिव्य नाम की अग्नि परीक्षा होती थी। इसके लिए तीन तरह के दिव्य प्रचलित थे।
कढ़ाई दीप- इसमें कढ़ाई में उबलते तेल में हाथ डालना पड़ता था यदि हाथ जल गया तो दोषी अन्यथा निर्दोष मान लिया जाता था।
गोरखों द्वारा लगाए गए अन्य दीप (Other lamps installed by Gurkhas)
उत्तराखण्ड में गोरखों की कर नीति(Tax Policy of Gorkhas in Uttarakhand)
गोरखाओं का अंग्रेजों के साथ युद्ध(Gorkha's war with the British)
नालापानी का ऐतिहासिक युद्ध/ खलंगा का युद्ध (Historical Battle of Nalapani / Battle of Khalanga)
- सबसे पहले देहरादून स्थित कलंगा के किले पर हमला होना था। जहां मात्र 500 गोरखा सैनिक किले की पहरेदारी कर रहे थे।
- नालापानी किले में गोरखा सैनिकों का सेनापति बलभद्र सिंह थापा कर रहा था।
- मेजर जनरल गिलेस्पी ने कलुंगा व नालापानी के किलों में एक साथ हमला कर दिया।
- जनरल गिलेस्पी पहले ही वार में 31 अक्टूबर 1814 को मारा गया लेकिन अंग्रेजों ने गोरखों को हरा दिया। जिसमें गोरखाओं के 420 जवान मार गए।
- बलभद्र थापा अंग्रेजों को चकमा देकर भाग गया था। और बाद में यह अफगानों के विरूद्ध युद्ध में मारा गया था।
- नालापानी युद्ध का आंखो देखा वर्णन विलियम फेजर ने किया है।
दिगालीचौड़ का युद्ध/ खिलपति का युद्ध(Battle of Digalichaud / Battle of Khilpati)
- 31 मार्च 1815 को कैप्टन हियरसे व हस्तीदल चौतरिया के बीच दिगालीचौड़ के युद्ध में हस्तीदल चौतरिया ने हियरसे को हरा दिया था। और उसे बंदी बना लिया।
गणनाथ डांडा का युद्ध(Battle of Gananath Danda)
- 23 अप्रैल 1815 को हस्तीदल चौतरिया व निकलसन के बीच विनायक थल के मैदान में युद्ध हुआ। जिसमें हस्तीदल चौतरिया व सरदार जयरखा दोनों मारे गये थे।
अल्मोड़ा या लालमंडी किला का युद्ध(Battle of Almora or Lalmandi Fort)
- 25 अप्रैल 1815 को कर्नल निकलसन व चामू भंडारी, बमशाह के बीच लालमंडी का युद्ध हुआ।
- अल्मोड़ा को अंग्रेजों के चंगुल से बचाने के लिए 25 अप्रैल की रात में चामू भंडारी के नेतृत्व में गोरखों ने खुकरी लेकर तहलता मचा दिया। जिससे अंग्रेजी सेना में कोहराम मच गया था।
- 26 अप्रैल 1815 को बमशाह ने अंग्रेजों को पत्र भेजकर युद्ध रोकने को कहा और बताया कि हम नेपाल जाने के लिये तैयार हैं।
अल्मोड़ा या लालमंडी की संधि(Treaty of Almora or Lal Mandi)(27 अप्रैल 1815)
- 27 अप्रैल 1815 को बमशाह व एडवर्ड गार्डनर के बीच यह संधि हुयी थी।
- गोरखों की ओर से चौतरिया बमशाह, चामू भण्डारी तथा जशमदन थापा ने हस्ताक्षर किये। जबकि अंग्रेजों की ओर से एडवर्ड गार्डनर ने हस्ताक्षर किये।
- इसके बाद गोरखों द्वारा कुमाऊँ छोड़ना प्रारम्भ कर दिया गया।
- लालमंडी संधि के बाद बमशाह ने अमरसिंह थापा को भी नेपाल वापस चलने को कहा जो कि उस समय ऑक्टरलोनी के साथ युद्ध लड़ रहा था।
मलावगढ की संधि(Treaty of Malavgarh)(15 मई 1815)
- 15 मई 1815 को अमर सिंह थापा व ऑक्टरलोनी के बीच यह संधि हुयी।
- इसके बाद नेपाल सरकार ने संधि को अवैध घोषित कर दिया।
- इस समय नेपाली राजा जीवार्ण युद्ध विक्रमशाह व प्रधानमंत्री भीमसेन थापा था। लेकिन बमशाह शान्ति व संधि चाहता था क्योंकि वो अंग्रेजों की शक्ति को पहचान चुका था।
- अतः समस्या के समाधान के लिये बनारस से स्वर्गीय राजा रण बहादुर शाह के गुरु गजराज मिश्र को काठमाण्डु बुलाया गया। जिसने 2 दिसम्बर 1815 को कर्नल ब्रेडशॉ के साथ संधि की।
संगौली की संधि(Treaty of Sangauli)(02 दिसंबर 1815)
- संगौली की संधि 02 दिसंबर 1815 में हुयी।
- संधि के अनुसार काली के पश्चिम का समूचा पहाड़ी प्रदेश व तराई क्षेत्र और मंची नदी के पूर्व का भाग ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया।
- काठमाण्डु में एक ब्रिटिश रेजीमेंट की नियुक्ति करने पर भी सहमति हो गई लेकिन गोरखे काठमाण्डु में अंग्रेजी रेजीडेंट को रखने पर सहमत नहीं हुए तथा गजराज मिश्र के माध्यम से गोरखों ने युद्ध की घोषणा कर दी।
- इस संधि को नेपाल दरबार में थापा दल ने संधि की पुष्टि करने से इंकार कर दिया।
- 28 फरवरी 1816 को ऑक्टरलोनी ने काठमांडू से कुछ दूर मकबानपुर के पास गोरखों पर आक्रमण कर पराजित किया। जिसमें 800 गोरखे मारे गये थे।
- गोरखों द्वारा ऑक्टरलानी को यह सूचना दी गयी कि नेपाल दरबार ने 2 दिसम्बर की सन्धि की पुष्टि कर दी थी। अंतत: 4 मार्च 1816 को गोरखों द्वारा संधि की पुष्टि हो गयी।
- 2 दिसम्बर 1815 का गजराज मिश्र द्वारा की गई संधि में नेपाल नरेश ने 4 मार्च 1816 को पुष्टि कर दी।
- अंग्रेजों द्वारा गार्डनर को गवर्नर जनरल के आदेश पर कुमाऊँ का कमिश्नर नियुक्त किया गया तथा ट्रेल को उसका सहायक बनाया गया।
- यह नेपाल में सबसे पहला ब्रिटिश रेजीडेंट गार्डनर बना।
- ब्रिटिश जनरलों में मेजर जनरल ऑक्टरलोनी ही एक योग्यतम सेनापति था।
- ऑक्टरलोनी के नेतृत्व में जैठक, रामगढ़ व मलाव के किलों में भी अंग्रेजों व गोरखों के मध्य भीषण संग्राम हुआ।
मूरक्राफ्ट की तिब्बत की यात्रा (Moorcraft's journey to Tibet)
- सन् 1812 में मूरक्राफ्ट व हियरसे कुमाऊँ व गढराज्य होते हुए ऊन की विस्तृत जानकारी हेतु तिब्बत पहुंचे।
- इनके साथ गुलाम हैदरखां तथा हरकदेव पण्डित भी गए थे।
- तिब्बत प्रवेश के समय इन्होंने गुसाइयों का वेश बना लिया था।
- कैप्टन हियरसे ने 1815 में गोरखाली अफसरों के बारे में लिखा है कि वे चंचल, दगाबाज, विश्वासघाती, अत्यंत लालची तथा क्रूर होते थे।
कुमाऊं में गोरखा प्रशासक(Gurkha Administrator in Kumaon)
सुब्बा जोगामल्ल (Subba Jogamalla)(1791-92 ई)
- कुमाऊं में पहला गोरखा प्रशासक सुब्बा जोगामल्ल (1791-92 ई) था।
- सवत् 1848-1849 (सन् 1891-92 ई) में सूब्बा जोगामल्ल ने पहला बंदोबस्त किया। इसने प्रत्येक आबाद बीसी
- (बीस नाली जमीन) पर एक रूपया टैक्स लगाया।
- घुरही पिछही के नाम से सालाना 2 रूपये प्रति मवासे ठहराये गए। साथ ही हर एक गांव से सुवांगी दस्तूर दफतर के
- खर्च के लिए राजकर ठहराया।
काजी नरसाही (Qazi Narsahi)
- 1793 में काजी नरसाही को प्रशासक बनाया गया।
बमशाह और रूद्रवीर (Bamshah and Rudraveer)
- 1797 में बमशाह और रूद्रवीर शाह को प्रशासक बनाया गया।
- बमशाह व रूद्रवीर शाह ने ब्राह्मणों पर कुसही नामक भूमिकर लगाया।
- रूद्रवीर ने बुनकरों पर टान नामक कर लगाया।
- गोरखा प्रशासक बमशाह चौतरिया का जन्म कुमाऊं में हुआ था।
- गोरखा प्रशासक रण बहादुर ने अपना नाम बदलकर स्वामी निगुर्णानंद रख लिया।
- गोरखा शासनकाल में स्त्रियों का छत पर चढना दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया।
- सूरवीर महावीर थापा ने 1796 ई में चंपावत के बालेश्वर मंदिर का जीर्णोद्वार कराया।
- गोरखे बौद्ध व हिंदू दोनों धर्मों के अनुयायी थे।
- गोरखा सैनिकों का मुख्य हथियार खुकरी होता था।