उत्तराखण्ड का इतिहास जानने के स्त्रोत(Sources of knowing the history of Uttarakhand)
विभिन्न कालों के आधार पर हम उत्तराखण्ड के इतिहास को तीन भागों में बांट सकते हैं- प्रागैतिहासिक काल, आद्यऐतिहासिक काल और ऐतिहासिक काल
राज्य में ऐसे अनेक पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र अतिप्राचीन काल से मानवीय गतिविधियों से सम्बद्ध रहा है।
प्राचीन इतिहास से संबंधित जानकारी का भण्डार हमें लोकगाथाओं से भी प्राप्त होता है। जो निम्न हैं- राजुला मालूशाही, रमौला गाथा, पवाड़े, जागर, हुड़की बोल गाथाएं उत्तराखण्ड के इतिहास को दो चरणों प्राग ऐतिहासिक एवं ऐतिहासिक काल में विभाजित किया गया है।
पुरातत्व की दृष्टि से मानव इतिहास का प्राचीनतम चरण पाषाण युग है। जिसे डॉ० मदन मोहन जोशी ने तीन चरणों में बांटा है- निम्न, मध्य और उच्च पुरा पाषाण युग। निम्न पुरा पाषाण युग के उपकरणों की खोज युमना उपत्यका,श्रीनगर में अलकनन्दा के उपत्यका में, पश्चिमी रामगंगा घाटी, अल्मोड़ा, खुटानी नाला से के पी नौटियाल व यशोधर मठपाल द्वारा की गई है।
उत्तराखण्ड के इतिहास को जानने के तीन स्रोत हैं -
- 1. साहित्यिक स्त्रोत
- 2. पुरातात्विक स्त्रोत
- 3. विदेशी यात्रियों के द्वारा विवरण
साहित्यिक स्त्रोत(Literary Source)
धार्मिक ग्रन्थ(Religious Texts)
- उत्तराखण्ड का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। जिसमें इस क्षेत्र के लिए मनीषियों की पूर्ण भूमि या देवभूमि कहा गया है।
- ब्राह्मण ग्रंथ ऐतरेव ब्राह्मण में उत्तराखण्ड को उत्तर का कुरू कहा गया है।
- स्कंदपुराण में उत्तराखण्ड को ब्रह्मपुर, खशदेश, उत्तरखण्ड कहा गया है।
- स्कंदपुराण में गढ़वाल क्षेत्र को केदारखंड तथा कुमाऊं क्षेत्र को मानसखंड कहा गया है।
- स्कंदपुराण में केदारखण्ड और मानसखण्ड को संयुक्त रूप से खशदेश कहा गया है।
- स्कंद पुराण में हिमालय क्षेत्र को पांच भागों में बांटा गया है - नेपाल, मानसखण्ड, केदारखण्ड, जालंधर और कश्मीर स्कन्द पुराण में वर्णित है कि नन्दा पर्वत गढ़वाल और कुमाऊँ को विभाजित करता है।
- पुराणों में कुमाऊँ को कूर्माचल कहा गया है।
- बौद्ध धर्म ग्रन्थों में उत्तराखण्ड को हिमवंत कहा गया है।
- महाभारत में गढ़वाल क्षेत्र को स्वर्गभूमि, बद्रिकाश्रम, तपोभूमि कहा गया है।
- महाभारत के आदि पर्व में उत्तर कुरू तथा दक्षिण कुरू दो देशों का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है।
- केदारखण्ड के अंतर्गत मायाक्षेत्र (हरिद्वार) से हिमालय तक का क्षेत्र आता था तथा मानसखंड के अंतर्गत नंदादेवी पर्वत से कालागिरी तक का क्षेत्र आता था। इन दोनों खण्डों को नंदा देवी पर्वत अलग करता है।
- कौशीतकी ब्राह्मण में लिखा है कि वाक्देवी का निवास स्थान बद्रीकाश्रम में था।
- श्री व्यास जी ने बद्रीकाश्रम में षष्टिलक्ष संहिता की रचना की थी।
- किरातों ने अपने नेता शिव के झण्डे के नीचे अर्जुन से युद्ध (तुमुल संग्राम) किया। इसका उल्लेख हमें केदारखण्ड में मिलता है।
- जिस स्थान पर यह युद्ध हुआ वहां आज विल्लव केदार के नाम से प्रसिद्ध तीर्थ बन गया है। विल्लव केदार अलकनन्दा के बाएं तट पर स्थित है जिसे शिवप्रयाग के नाम से जाना जाता है।
अधार्मिक ग्रंथ(Irreligious Texts)
- पाणिनी की अष्टध्यायी, कालिदास कृत रघुवंशम, मेघदूतम्, कुमारसंभव, बाणभट्ट कृत हर्षचरित, राजशेखर कृत काव्य मीमांसा में उत्तराखण्ड के बारे में जानकारी प्राप्त होती हैं।
- कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिणी में कश्मोर के शासक ललितादित्य मुक्तापीड द्वारा गढवाल विजय का उल्लेख मिलता है।
- उत्तराखण्ड में प्रचलित लोकगाथाओं जैसे जागर इत्यादि भी इतिहास हेतु महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं।
- मुस्लिम ग्रन्थ जहांगीरनामा और तारीख-ए-बदायूंनी में भी उत्तराखण्ड का वर्णन है।
- ह्वेसांग ने अपने यात्रा वृतांत सी यू- की में उत्तराखण्ड के लिए पो-लि-ही-मो-पु-लो अर्थात ब्रह्मपुर शब्द का प्रयोग किया है तथा हरिद्वार को मो-यू-लो अर्थात मायानगरी या मयूरनगरी कहा है और इसकी माप 20 ली बतायी।
- ह्वेसांग ने अपनी पुस्तक में गोविषाण नामक स्थान का वर्णन किया है। इसकी पुष्टि प्रो० अलेकजेण्डर कनिंघम ने काशीपुर के रूप में की है।
- जोशीमठ (ज्योतिषपीठ) से प्राप्त हस्तलिखित ग्रन्थ गुरुपादुक में अनेक शासक और वंशों का उल्लेख प्राप्त होता है।
- प्रयाग प्रशस्ति लेख में इस क्षेत्र को कार्तिकेयपुर/ कर्तृपुर कहा गया है।
- तालेश्वर से प्राप्त ताम्रपत्रों में कार्तिकेयपुर तथा ब्रह्मपुर शब्द का उल्लेख किया गया है।
- पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों में केवल कार्तिकेयपुर शब्द का उल्लेख मिलता है जबकि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा वृतान्त में केवल ब्रह्मपुर शब्द का प्रयोग किया गया है।
पुरातात्विक स्त्रोत(Archaeological Sources)
प्रागैतिहासिक अवशेष(Prehistoric remains)
- उत्तराखण्ड में पुरातत्व की खोज का प्रारम्भ हेनवुड ने किया था। हेनवुड द्वारा 1856 में चम्पावत के देवीधुरा नाम को स्थान पर सर्वप्रथम कपमार्क्स उत्खनित किए गए थे।
- इसके पश्चात् 1877 में रिवेट कानक द्वाराहाट के चंद्रेश्वर मन्दिर के समीप शैलचित्रों की खोज की जो 12 पंक्तिया में खुदे मिले हैं। रिवेट कार्नक द्वारा द्वाराहाट से प्राप्त शैलचित्रों को यूरोप से प्राप्त शैलचित्रों के समान बताया गया है।
- गढ़वाल विश्वविद्यालय को पश्चिमी रामगंगा घाटी के सनणा तथा बसड़ी गांवों (भिकियासैंण) से शवाधान प्राप्त है।
- इसी तरह की आकृतियां जसकोट, देवीधुरा, नौला, जैनल, सनणा, बसेड़ी, मुनिया की डाई, जायों ग्राम, गोपेश्वर, पनार घाटी आदि स्थलों से प्राप्त हुई हैं।
अल्मोड़ा से प्राप्त स्रोत(Sources from Almora)
लाखु उड्यार(गुफा) (Lakhu Udiyar)
- इस उड्यार की खोज 1968 में डॉ० एम पी जोशी द्वारा की गई थी।
- यह उड्यार अल्मोड़ा जनपद में अल्मोड़ा से 20 किमी दूर बाड़ेछीना के पास दलबैंड पर स्थित है।
- यह सुयाल नदी के दांये तट पर स्थित है।
- यहां से मानव तथा पशु पक्षियों के शैलचित्र प्राप्त हुए हैं तथा मानवाकृतियों को अकेले या समूह में नृत्य करते दिखाया गया है।
- जानवरों में लोमड़ी व अनेक पैरों वाली छिपकली के चित्र प्राप्त हुये हैं।
- इन शैलचित्रों में मानवाकृतियों को रंगों से सजाया गया है।
- इन शैलचित्रों में तीन रंगों का प्रयोग किया गया है - सबसे नीचे श्याम, मध्य में कत्थई (लोहित) और ऊपरी भाग में श्वेत रंग का प्रयोग किया गया है।
- यह शैलचित्र नागफनी के आकार का है।
- डॉ० यशवन्त सिंह कठौच के अनुसार लाखु उड्यार उत्तराखण्ड में प्रागैतिहासिक शैलचित्रों की पहली खोज थी।
- इन चित्रों को ताम्रपाषाणकाल में रखा गया है।
- कुछ विद्वान इन चित्रों को भीमबेटिका शैलचित्रों के समान मानते हैं।
- राज्य पुरातत्व विभाग ने 1992 में इसे अपने संरक्षण में लिया।
फड़कानौली(Phadkanauli)
- लाखु उड्यार से आधा किमी पहले फड़कानौली के पास 3 शैलचित्र स्थित है।
- प्रथम शैलचित्र की छत नागराज के फन के भांति बाहर निकली है और इसकी दीवारों पर आकृतियों के 20 संयोजन विद्यमान है। दूसरे शैलचित्र में 10 स्थानों पर चित्रण के प्रमाण हैं। तीसरा शैलचित्र सुयाल नदी के तट पर स्थित है।
- फड़कानौली की खोज 1985 में यशोधर मठपाल द्वारा की गई।
पेटशाला (Petshala)
- इस शैलचित्र की खोज 1989 में यशोधर मठपाल द्वारा की गई।
- यहां से नृत्यरत मानव आकृतियां प्राप्त हुयी हैं जिन्हें कत्थई रंग से सजाया गया है।
- यहां से दो गुफाएं प्राप्त है जिसमें से पहली गुफा 8 मीटर गहरी और 6 मीटर ऊंची है। तथा दूसरी गुफा 4 मीटर ऊंची और 3.10 मीटर गहरी है।
फलसीमा(Falseema)
- यहां से योगमुद्रा व नृत्यमुद्रा में मानव आकृतियां मिली हैं।
- यहां पर एक चट्टान पर दो कप मार्क बनाए गए हैं।
- यह अल्मोड़ा से 8 किलोमीटर उत्तर-पूर्व दिशा में है।
ल्वेथाप (Lowethap)
- यहां से प्राप्त शैलचित्रों में मानव को शिकार करते हुए तथा हाथों में हाथ डालकर नृत्य करते दिखाया गया है।
- लाल रंग के चित्र प्राप्त होने के कारण इसे ल्वेथाप कहा जाता है।
- यहां पर तीन शेलचित्र स्थित है।
- यह शिलाश्रय अल्मोड़ा बिनसर मार्ग पर ल्वेथाप नामक स्थान पर स्थित है।
कसार देवी(Kasaar Devi)
- कसार देवी शैलचित्रों में 14 नृतकों का सुन्दर चित्रण किया गया है जो कासय पर्वत की कश्यप चोटी पर स्थित है।
- यह स्थान अल्मोड़ा से 8 किलोमीटर दूरी पर स्थित है
रामगंगा घाटी(Ramganga Ghati)
- डॉ. यशोधर मठपाल को यहां से पाषाणकालीन शवागार और ओखली (कपमार्क्स) प्राप्त हुए हैं।
धनगल(Dhangal)
- कुमाऊँ विश्वविद्यालय अल्मोड़ा के इतिहास एवं पुरातत्व विभाग ने अल्मोड़ा जनपद में बग्वालीपोखर के निकट धनगल गांव से थापली व पुरोला के समान चित्रित धूसर मृदभांड के टुकड़े, पक्की मिट्टी के अनेक खिलौने, ताम्र चूड़ियां व अश्व अस्थियां खोजी हैं।
- यहां चित्रित मृदभांड लाल मिट्टी से निर्मित हैं।
- यहां कुमाऊँ विश्वविद्यालय द्वारा 1998 में प्रो० एम पी जोशी और डी एस नेगी के संरक्षण में उत्खनन का कार्य प्रारम्भ किया था।
चंद्रेश्वर मंदिर द्वाराहाट(Chandreswar Temple)
- द्वाराहाट में चन्द्रेश्वर मन्दिर के समीप से ओखलियां (कपमार्क्स) मिली हैं जहां 12 पंक्तियों में 200 कप माकर्स खुदे है।
- इनकी खोज रिबेट कार्नक द्वारा 1877 में की गयी।
- डॉ० एम पी जोशी द्वारा जसकोट, देवीधुरा आदि स्थानो से से भी कपमार्क्स की खोज की गई है तथा
- डॉ० यशोधर मठपाल द्वारा गोपेश्वर के समीप पश्चिमी नयार घाटी से भी कपमार्क्स की खोज की है।
- द्वाराहाट को कुमाऊं का खुजराहो कहा जाता है।
नैनीपाताल(Nainipatal)
- यहां से 1999 में 05 ताम्रमानवाकृतियां प्राप्त की गई हैं।
खेखड(Khekhad)
- यहां से 1982 में प्रागैतिहासिक काल के मृदभांड प्राप्त हुये थे।
- हथ्वालघोड़ा, कालामाटी, महरू-उड्यार, मल्ला पैनाली, डीनापानी ये सभी स्थान अल्मोड़ा में है।
- नोट: महरू उड्यार से भी चित्रित अवशेष प्राप्त हुये हैं।
जाखन देवी मंदिर (Jakhan Devi Temple)
- यह मंदिर अल्मोड़ा में स्थित है यह मंदिर यक्षों के बारे मे जानकारी देता है।
चमोली से प्राप्त अवशेष(Residue from Chamoli)
ग्वारख्या गुफा(Gwarakhya Cave)
- यह शैलचित्र डुंग्री गांव में अलकनन्दा नदी के किनारे स्थित है।
- गोरखाओं ने यहां लूट का माल छिपाया था इस कारण इसे ग्वारख्या गुफा कहते हैं।
- इसकी खोज राकेश भट्ट द्वारा 1993 में की गई थी।
- यहां पीले रंग की धारीदार चट्टान पर गुलाबी व लाल रंग के चित्र अंकित किए गए हैं।
- डॉ० मठपाल के अनुसार इन शिलाश्रयों में लगभग 41 आकृतियां हैं जिनमें 33 मानवों की 8 पशुओं की आकृतियां हैं।
- यहां मनुष्य को त्रिशूल आकार से अंकित किया गया है।
- यहां से मानव भेड़, बारहसिंगा, लोमड़ी आदि के रंगीन चित्र मिले हैं।
- पशुओं में बकरीनुमा चित्र काफी प्राकृतिक है।
- इन शैलचित्रों का मुख्य विषय पशुचारक संस्कृति या पशुओं का हांका देकर घेरना है।
मलारी गांव( Malari Village)
- मलारी गांव की गुफा को सर्वप्रथम 1956 ई० शिवप्रसाद डबराल ने खोजा।
- डबराल ने यहां से महापाषाणकालीन शवागार खोजे।
- इन शवाधानों की आकृति मंडलाकार गर्त जैसी है। जिनमें शव के चारों ओर अनगढ शिलायें खड़ी करके रखी गयी हैं
- यहां उत्खनन का कार्य सबसे पहले गढवाल विश्व विद्यालय द्वारा 1982-83 में किया गया।
- यहां की गुफा अंडाकार थी जिसकी उंचाई 1.15 मीटर व गहराई 3 मी थी।
- और इन्हें ऊपर से बड़े बड़े पटालों से ढका गया है।
- इन शवाधानों में मानव अवशेषों के साथ अश्व, मेंढ, तश्तरियां, विभिन्न आकार की टोंटी एवं लगभग 15 हत्थेयुक्त कुतुप इत्यादि भी रखे गये हैं। जो इस बात का संकेत है कि इस काल का मनुष्य मृत्यु के बाद भी जीवन को कल्पना करता था।
- एक कुतुप के हत्थे पर चमकदार पॉलिस की गयी है और इसके हत्थे पर मोनाल का चित्र अंकित किया गया है।
- इन शवाधानों को अ. दानी ने स्वात घाटी की गांधार-शवागार संस्कृति के समान बताया है।
- टूसी ने इसी घाटी को दरद समुदाय से संबंधित बताया है। जबकि सांकलिया ने इन्हें आर्यों से जोड़ा है।
- डबराल के अनुसार किन्नौर में लिप्पा की समाधियों के समान मलारी के शवाधान मंडलाकार गर्त जैसे थे।
- यहां वर्ष 2002 में गढ़वाल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के द्वारा नर कंकाल, मिट्टी के बर्तन, जानवरों के अंग, 5 किग्रा० का एक सोने का मुखौटा व कांसे का कटोरा प्राप्त किया गया।
- यहां से आखेट के लिए लौह उपकरणों के साथ पशु का एक संपूर्ण कंकाल भी मिला है।
किमनी गांव(Kimani Village)
- किमनी थराली के समीप पिंडर नदी के किनारे स्थित है।
- चमोली के किमनी गांव में स्थित इस गुफा से सफेद रंग से चित्रित हथियार एवं पशुओं के शैलचित्र मिले हैं।
- इस ज्ञात पशु की पहचान अब हिमालयी वृषभ जुबु या जोबा से की गई है।
- मलारी गांव से प्राप्त लौह फलक उत्तराखण्ड से प्राप्त लौह उपकरणों में सर्वाधिक प्राचीन है।
- यहां से लोहे का एक जार भी प्राप्त हुआ है।
- मलारी मारछा जनजाति का गांव है।
हरिद्वार से प्राप्त अवशेष(Residue from Haridwar)
बहादराबाद(Bahadrabad)
- डॉ० यशवन्त कठौच के अनुसार हरिद्वार के बहादराबाद में खोदते समय 1951 में ताम्र उपकरण व मृदभांड की खोज की गई।
- इसी स्थल पर 1953 में यज्ञदत्त शर्मा द्वारा उत्खनन किए जाने के साथ ही पाषाण उपकरणों के साथ वही मृदभांड प्राप्त हुए हैं।
पौढी से प्राप्त अवशेष(Residue from Pauri)
थापली(Thapli)
- थापली का उत्खनन कार्य एचएनबी(H.N.B) विवि द्वारा के पी नौटियाल के निर्देशन में 1982-83 में किया गया था।
- यहां से 1.20 मीटर के चित्रित धूसर मिट्टी के बर्तन मिले हैं। इन मृदभांडों में तश्तरियां व कटोरियां हैं।
- चित्रित मिट्टी के बर्तनों पर काले रंग का प्रयोग किया गया है जिनमें सूर्य, सिग्मा, एक केंद्रीत वृत्त, खड़ी व क्षैतिज रेखायें, पत्तियां, पुष्प आदि चित्र हैं।
- यहां से लाल व काले रंग के बर्तन भी प्राप्त हुये हैं।
- यहां से प्राचीन वस्तुऐं तांबे की चूड़ियां, आंखों पर काजल लगाने वाली अंजन शलाकाऐं तथा पक्की मिट्टी की बनी चिड़िया उल्लेखनीय हैं।
- थापली से धान की खेती करने के अवशेष प्राप्त होते हैं।
- थापली अलकनंदा के दाहिने तट पर स्थित है।
रणिहाट(Ranihaat)
- यह श्रीनगर में अलकनंदा के दाहिने तट पर स्थित है।
- इसका उत्खनन भी गढवाल विवि द्वारा के पी नौटियाल के निर्देशन में 1977 में किया गया।
- यहां के उत्खनन से ईंटें प्राप्त हुयी हैं।
- ईंटों के साथ साथ अस्त्र शस्त्र व मृदभांड भी प्राप्त हुये हैं।
- रानीहाट के प्राचीन निवासी स्थानीय कच्चे लोहे को गलाकर लोहे के औजार बनाने में निपुण थे। जो मछली मारने शिकार करने हेतु प्रयुक्त किये जाते थे।
उत्तरकाशी से प्राप्त अवशेष(Residue from Uttarakashi)
पुरोला(Purola)
- यह यमुना की सहायक कमल नदी के बांये किनारे पर स्थित है।
- यहां से काले रंग का आलेख प्राप्त हुआ है जो शंखलिपि में लिखा गया है। जिसको अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
- यहां से भी लाल व काले रंग के बर्तन प्राप्त हुये हैं।
- यहां से पक्की मिट्टी के खिलौने व मनके प्राप्त हुये हैं।
- यहां से घोड़े की हड्डियों के अवशेष प्राप्त हुये हैं।
- पुरोला से एक इष्टिका वेदिका भी प्राप्त हुयी है जिसका आकार उड़ते हुये गरूड़ पक्षी के समान है।
- यहां से प्राप्त एक लोहे के फरसे तथा हड्डियों के प्रचुर अवशेषों के आधार पर यह कहा जाता है कि यहां पशुओं की बलि बड़ी संख्या में दी जाती थी।
हुडली(Hoodly)
- यहां से नीले रंग के शैलचित्र प्राप्त हुए हैं।
पिथौरागढ से प्राप्त अवशेष(Residue from Pithoragarh)
बनकोट(Bankot)
- यहां से 8 ताम्र मानवाकृतियां प्राप्त हुई हैं।
चंपावत से प्राप्त अवशेष(Residue from Champawat)
देवीधुरा(Devidhura)
- चम्पावत के देवीधुरा में पुरातत्व की खोज का प्रारम्भ हैवनहुड(हेनवुड) ने किया। जब उनके द्वारा 1856 में देवीधुरा से पुरापाषाणिक शवाधान की खोज की गई।
- यह उत्तराखण्ड के सभी प्रागैतिहासिक अवशेषों में सबसे पहली खोज थी।
ऐतिहासिक काल के स्त्रोत(Historical Sources)
कालसी अभिलेख(Kalsi Record)
- यह स्थल देहरादून में स्थित है।
- कालसी शिलालेख अमलाब नदी के किनारे स्थित है। अमलाव यमुना की सहायक नदी है।
- कालसी का प्राचीन नाम कालकूट था। कालसी के अन्य नाम खलतिका व युगशैल भी है।
- यहां अशोक का अभिलेख है। जिस शिला पर अभिलेख है उसे कालशिला या चित्रशिला कहा जाता है।
- इस अभिलेख की खोज 1860 में फॉरेस्टर ने की थी।
- इस अभिलेख की उंचाई 10 फुट व चौड़ाई 8 फुट है।
- यह अभिलेख प्राकृत भाषा में ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है।
- कालसी यमुना व टौंस के संगम पर स्थित है जो कुणिन्द राजाओं की राजधानी भी रहा है।
- इस अभिलेख में अशोक ने कालकूट क्षेत्र को अपरांत कहा है तथा यहां के निवासियों को पुलिंद कहा है।
- इस अभिलेख में अशोक ने हिंसा त्यागकर अहिंसा अपनाने की बात कही है।
- सातवीं शताब्दी में कालसी को सुधनगर के रूप में ह्वेंसांग ने देखा था।
- यह अशोक का 13 वें कम शिलालेख है।
- यहां अशोक के 14 शिलालेख हैं।
- इस अभिलेख में हाथी के चित्र का अंकन किया गया है और उसके पैरों के मध्य गजतमे (श्रेष्ठ हाथी)शब्द लिखा गया है। गजतमे संस्कृत भाषा में लिखा गया है। इसमें हाथी को आसमान से उतरते दिखाया गया है। पुरातत्वविदों के अनुसार यह भगवान बुद्ध का प्रतीक है।
- यहां के अभिलेख खंडित अवस्था में हैं। इनका खंडन 1254 में नसिरुद्दीन महमूद ने किया था।
- इस लेख में अंत में 5 यवन राजाओं का उल्लेख भी मिलता है।
लाखामंडल(Lakhamondal)
- यह स्थल देहरादून में स्थित है।
- लाखामंडल का प्राचीन नाम मढ था।
- लाखामंडल यमुना व रिखनाड़ तथा यमुना व गोदरगाड़ नदियों के संगम पर स्थित है।
- लाखेश्वर या लाखामंडल में छत्र युक्त (पैगोडा सदृश) मंदिर स्थापित है।
- लाखामंडल गुफा से कत्यूरी राजवंश की राजकुमारी ईश्वरा का अभिलेख प्राप्त हुआ है।
- यहां से गुप्तकाल से पूर्व की मूर्तियां भी प्राप्त हुयी हैं। यहां से दो विशाल मूर्तियां भी प्राप्त हुयी हैं जिन्हें अर्जून, भीम या जय विजय भी कहा जाता है।
- यहां से ब्राह्मी लिपि में श्लोक बद्ध संस्कृत लेख भी प्राप्त हुआ है।
- लाखामंडल लेख में उत्तराखंड को सिंहपुर कहा गया है।
अम्बाड़ी(Ambadi)
- यह स्थान देहरादून में स्थित है। यहां से भद्रमित्र शुंग का अभिलेख मिला है।
त्रिशूल अभिलेख( Trishul Record)
- त्रिशूल अभिलेख शंख लिपि में लिखा गया है।
- राज्य में गोपेश्वर (गोपीनाथ मन्दिर) व बाड़ाहाट (शक्ति मन्दिर) से त्रिशूल लेख मिले हैं।
- गोपेश्वर से प्राप्त लेख में विशुनाग (नाग वंश) व अशोक चल्ल (नेपाली शासक) तथा बाड़ाहाट से प्राप्त लेख में गुहनाग (नागवंश) व अशोक चल्ल के नाम मिले हैं।
अल्मोडा से प्राप्त सिक्के(Coins from Almora)
- ये कुणिन्द शासकों से सम्बन्धित हैं।
- अल्मोड़ा व बागेश्वर की सीमा पर 1979 में कत्यूरघाटी से 15 सिक्के प्राप्त हुये।
- इन सिक्कों पर निम्न राजाओं के नाम अंकित हैं- शिवदत्त, शिवपालित, हरिदत्त, मार्गभूति, आशेक,
- गोमित्र।
- ये हिमालय क्षेत्र की पहली मुद्रा थी।
- ये सिक्के राजकीय संग्रहालय अल्मोड़ा में रखे गए हैं। बताया जाता है कि इसके अलावा यह सिक्के अल्मोड़ा के बाद फिर ब्रिटेन के संग्रहालय (अल्बर्ट म्यूजियम) में संरक्षित हैं।
- वीरभद्र (ऋषिकेश) नामक स्थान से भी ऐतिहासिक काल के अवशेष प्राप्त हुये हैं।
- इस स्थल का उत्खनन 1973-74 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने किया। उत्खनन में कुषाणकालीन भवन, सिक्के व मृदभांड प्राप्त हुये हैं।
- गढवाल वि वि ने मोरध्वज (1979-81) तथा पांडुवाला पौढी (1983) का उत्खनन किया।
- मोरध्वज से बुद्ध की योगासन मुद्रा में बोधिसत्व प्रतिमाऐं प्राप्त हुयी हैं। जिनसे पता चलता है कि यहां बौद्ध धर्म का प्रभुत्व था। इसके अलावा कृष्ण की केशिवध मूर्ति भी प्राप्त हुयी है।
- मरखाम ने 1887 में मोरध्वज का उत्खनन किया। यहां से 23 अंडाकार मृणफलकों की खोज की गयी। यहां से आठ मृणमुद्रायें भी प्राप्त हुयी हैं।
- नैनीताल तथा देहरादून के बाड़ावाला से ईंटों पर लेख उत्कीर्ण मिले हैं।
- बागेश्वर लेख से कत्यूरी काल के राजा बसंत देव, खर्परदेव, राजा निंबर के वंशों की जानकारी प्राप्त होती है।
- टिहरी के पलेठी से प्राप्त अभिलेख से नागवंश की जानकारी प्राप्त होती है।
- बास्ते ताम्रपत्र (पिथौरागढ़) से गोरखा सेनानायक मोहनथापा का उल्लेख मिलता है। यह ताम्रपत्र आनंदपाल का है।
- पुरातात्विक एवं साहित्यिक साक्ष्य उत्तराखण्ड राज्य में आद्यऐतिहासिक काल में नगर होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
- उस समय गोविषाण (काशीपुर), गंगाद्वार (हरिद्वार), कनखल, शत्रुध्न, कालकूट, सुबाहु की राजधानी श्रीनगर नगरी स्थिति में थे।
- गोविषाण से उत्खनन में 2600 ई०पू० की ईंटें प्राप्त की गई हैं।
- कनखल एवं मायापुर से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्यों के कारण हरिद्वार को गेरूए रंग की सभ्यता का नगर कहा गया है।
आद्यऐतिहासिक काल के स्रोत (Sources of Protohistoric period)
- प्राकृतिक सुविधाओं के साथ-साथ उत्तराखण्ड क्षेत्र आध्यात्मिक रूप से भी आर्य सभ्यता व संस्कृति का केन्द्र रहा है।
- माना जाता है कि पृथ्वी में जलप्लावन के पश्चात् जिस स्थान पर जीवन की उत्पत्ति हुई वह स्थान उत्तरखण्ड में अल्कापुरी के समीप ब्रहमावर्त (माणा) के अति निकट है ओर आदि मानव ने यहीं से जीवन प्रारम्भ किया था।
- बद्रीनाथ के समीप पांच गुफाएं हैं (गणेश, नारद, स्कंद, मुचकुंद व व्यास)। ये वही गुफाएं हैं जहां वेदों व पुराणों की रचना हुई।
- मनु के बारे में कहा जाता है कि वे माणा आये थे। उन्होंने जिस भूमि पर अपने साम्राज्य का विस्तार किया उसे मनु के नाम पर मानसखंड कहा गया।
- उत्तराखण्ड का उल्लेख प्रारम्भिक धर्मग्रन्थों में भी मिलता है जहां पर केदारखण्ड (मायाक्षेत्र से हिमालय तक का विस्तृत क्षेत्र) का जिक्र वर्तमान गढ़वाल के लिए तथा मानसखण्ड ( नन्दा देवी पर्वत से कालागिरी तक का विस्तृत क्षेत्र) का जिक्र वर्तमान कुमाऊँ के लिए किया गया है।
- वर्तमान में दोनों को संयुक्त रूप से देवभूमि के नाम से जाना जाता है।
- लोककथाओं के आधार पर पाण्डव यहां पर आये थे और महाभारत और रामायण की रचना यहीं पर हुई थी।
- कालिदास ने अपने महाकाव्य के मंगल-श्लोक में हिमालय की वन्दना कर नगाधिराज को देवात्मा एवं पृथ्वी का मानदंड कहा है।
- पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार उत्तराखण्ड सहित हिमालय के पार के प्रदेश तिब्बत का प्राचीन नाम उत्तर कुरू एवं मेरठ- हस्तिनापुर का नाम दक्षिण कुरू था। सम्भवतः इन दो प्रदेशों के जोड़ने वाले बीच के क्षेत्र उत्तराखण्ड का नाम कारूपथ पड़ा।
- पुराणों के अनुसार यहां पर यक्ष, किन्नर, खश, किरात आदि प्राचीन समुदाय के लोग निवास करते थे।
- उत्तराखण्ड हिमालय का प्रमुख भाग है। आज उत्तराखण्ड दो मण्डलों में सिमट कर रह गया है। लेकिन उत्तराखण्ड कत्यूरी, चंद, पवार राजवंश, टिहरी रियासत, गोरखाराज और अंग्रेजों के शासनाधीन रहा है।