उत्तराखण्ड के प्रमुख लोकनृत्य | Uttarakhand ke Pramukh Loknrityan

'चौ' का अर्थ होता है 'चारों ओर' तथा 'फुला' का अर्थ होता है 'प्रसन्न होना'। ऐसी मान्यता है कि इस नृत्य को माँ पार्वती ने भगवान शिव

गायन, वादन एवं नृत्य के सुसंगत समावेश को संगीत कहा जाता है। मधुर ध्वनियों या स्वरों का विशिष्ट नियमों के अनुसार लयबद्ध होकर प्रस्फुटित होना संगीत है। यह सर्वविदित है कि संसार के समस्त जीवों में मानव ही एकमात्र विचारशील एवं सर्वाधिक संवेदनशील जीव है। वह अपने जीवन में घटने वाली घटनाओं तथा अपने पर्यावरण को अनुभव करता है। इस प्रक्रिया में उसे कई बार तीव्र हर्ष, निराशा, प्रसन्नता, उत्साह, दुःख, क्रोध, घृणा आदि के भावों का अनुभव होता है। प्राय: मानव इन तीव्र आवेगों को संगीत के माध्यम से व्यक्त करता है। अतः सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि संगीत मानवीय संवेदना को व्यक्त करने का एक रचनात्मक साधन है। संगीत का मानव के साथ सम्बंध मानव की उत्पत्ति काल से है। प्रत्येक समाज का संगीत उस समाज के इतिहास, भूगोल, धर्म एवं संस्कृति से जुड़ा हुआ होता है। यदि उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में चर्चा की जाए तो यहाँ के निवासी संगीतप्रिय माने जाते हैं। यहाँ के लोक जीवन में संगीत रचा-बसा है। यह संगीत नृत्य तथा गीतों की विभिन्न शैलियों के रूप में प्रस्फुटित हुआ है। इस अध्याय में हम उत्तराखण्ड के प्रमुख लोकनृत्यों का अध्ययन करेंगे। श्री शिवांनद नौटियाल तथा अन्य विद्वानों द्वारा राज्य में प्रचलित विभिन्न नृत्यों का वर्णन किया गया है। 

उत्तराखण्ड के प्रमुख लोकनृत्य
उत्तराखण्ड के प्रमुख लोकनृत्य 

धार्मिक लोकनृत्य

उत्तराखण्ड को देवभूमि यूं ही नहीं कहा जाता है। यहाँ के कण-कण में देवी-देवताओं का निवास है। यहाँ के लोग भी आध्यात्म में डूबे हुए रहते हैं। उनकी सम्पूर्ण भारत में मान्य देवी-देवताओं के अतिरिक्त स्थानीय लोक देवताओं में भी पूर्ण आस्था है। इन देवी-देवताओं का समय-समय पर पूजन तथा आह्वान किया जाता है। उनकी स्तुति में विभिन्न नृत्य का आयोजन किया जाता है। जब किसी पश्वा में कोई देवता अवतरित होता है, तो वो भी विशिष्ट शैली में नृत्य करता है। इन नृत्यों को धार्मिक नृत्य कहा जाता है। नागर्जा, निरंकार, नरसिंह, भैरव, नंदा, उफराई देवी, हीत, मैमन्दा, हनुमान, घण्टाकर्ण, लाटू, गोरिल, रघुनाथ आदि देवी-देवताओं को उत्तराखण्ड में बहुत मान्यता प्राप्त है और इनके पश्वा धार्मिक नृत्य करते हैं।

बाजूबंद नृत्यगीत

बाजूबंद तथा न्यौली एक ही प्रकार के नृत्यगीत हैं। बाजूबंद गढ़वाल क्षेत्र में तथा न्यौली कुमाऊँ क्षेत्र में अधिक प्रसिद्ध नृत्यगीत हैं। बाजूबंद घसेरी (घास काटने वाली महिलाएं) तथा ग्वेरी (गाय चराने वाली महिलाएं) के नृत्यगीत हैं। यह संवाद प्रधान गीत हैं, जो समूह में नहीं गाये जाते हैं। बाजूबंद तथा न्यौली दोनों ही डेढ़ चरण के मुक्तक हैं, जिनमें पहली पंक्ति का दूसरी पंक्ति से कोई सम्बंध नहीं होता है। यह तुकांत नृत्यगीत हैं। प्रथम पंक्ति का उपयोग दूसरी पंक्ति से तुक मिलाने के लिए किया जाता है। इन नृत्यगीतों में प्रेम तथा विरह से सम्बंधित गीतों की प्रधानता रहती है। इन नृत्यगीतों को प्रेमी द्वारा बुरांश, बाज, काफल, देवदार आदि के पेड़ों के नीचे बैठकर गाया जाता है।

झोड़ा नृत्य

कुमाऊँ क्षेत्र में यह बसंत ऋतु के आगमन तथा होली के बाद किया जाने वाला स्त्री-पुरूषों का श्रृंगारिक नृत्य है।इस नृत्य में मुख्य गायक वृत के मध्य में हुड़की बजाता हुआ नृत्य करता है। इस नृत्य में पुरूष साधारणत: चूड़ीदार पायजामा या सफेद कुर्ते पर काली वास्केट और कमर पर रंगीन रूमाल पहनकर सिर पर रंगीन चादर लपेटते हैं।

इस नृत्य में आयु का बंधन नहीं होता है। प्रेम प्रधान गीत इस नृत्य की प्रमुख विद्या है। झोड़ा नृत्य के दौरान गाये जाने वाले गीतों को झोड़ा गीत कहा जाता है।

नट-नटी नृत्यगीत

श्री शिवानंद नौटियाल महोदय लिखते हैं कि "हास्य-रस इसका मुख्य विषय तथा कथानक ग्रामीण जीवन से सम्बंधित है। प्रायः बद्दी तथा मिरासी जाति के लोग ही इस नृत्य को करते हैं। ऐसे नृत्यों का आयोजन इनके द्वारा कहीं भी और कभी भी हो जाता है। जब पेशेवर नर्तक अपने कई प्रकार के नृत्यों को प्रस्तुत करते हैं, तो उसी बीच वें हास्यपूर्ण मनोरंजन करने के लिए नट-नटी नृत्य गीत को भी प्रस्तुत कर देते हैं।"

चौफला नृत्य (चमफुली नृत्य)

'चौ' का अर्थ होता है 'चारों ओर' तथा 'फुला' का अर्थ होता है 'प्रसन्न होना'। ऐसी मान्यता है कि इस नृत्य को माँ पार्वती ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए गढ़वाल की एक पर्वत श्रृंखला पर चौरी (चौपाल) बनाकर अपनी सहेलियों के साथ किया था और इस नृत्य से उस चौरी के चारों ओर फूल खिल गये थे। भगवान शिव माँ पार्वती से प्रसन्न हुए थे और उन्होने माँ पार्वती से विवाह किया था। इसी प्रसंग से चौफुला नृत्य प्रसिद्ध हो गया। गढ़वाल क्षेत्र में यह नृत्य स्त्री-पुरूष द्वारा एक साथ या अलग-अलग टोली बनाकर किया जाता है।

यह नृत्य एक श्रृंगार नृत्य है। इसमें किसी वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं किया जाता है, अपितु हाथों की ताली, पैरों की थाप, झांझ की झंकार, कंगन, पाजेब तथा अन्य आभूषणों की ध्वनियां इस नृत्य के दौरान मादकता प्रदान करती हैं। चौफला की तुलना गुजरात के गरबा नृत्य से की जा सकती है। थड़या नृत्य की भांति यह भी खुले मैदान में किया जाता है, किंतु इसमें महिलाओं के साथ-साथ पुरूष भी भाग ले सकते हैं। डॉ० शिवानंद नौटियाल लिखते हैं कि इसकी शैलियों की परम्परा बहुत बड़ी है। एक शैली का नाम 'खड़ा चौफला' है। द्रुतगति से अत्यंत मोहक - ठुमकों के साथ किया जाने वाला एक गति में जो नृत्य चलता है, वह खड़ा चौफला कहलाता है। चौंफला की एक और नृत्यशैली का नाम लालुड़ी चौंफला है। लालुड़ी में नर्तक और नर्तकिया गोल घेरे में दो दल बना लेते हैं। गीत मध्य लय में चलता रहता है।

झुमैलो नृत्य

यह नृत्य बसंत पंचमी से आरम्भ होकर विषुवत संक्रान्ति तक आयोजित किया जाता है। इस नृत्य के नाम से ही स्पष्ट है कि यह प्रसन्नता से झूमने के भाव से ओत-प्रोत है। यह नृत्य विवाहित कन्याओं द्वारा अपने मायके आने की प्रसन्नता में झूम-झूमकर किया जाता है। कहा जा सकता है कि झुमैलो की भावना मायके से अगाध प्रेम की परिचायक है। इन गीतों के माध्यम से नारी मन से अपने मायके के प्रति प्रेम के भाव प्रस्फुटित होते हैं।

यह नृत्य किशोरियों द्वारा गोल परिधि में कंधों में हाथों को डालकर तथा थोड़ा झुककर, कदमों को आगे पीछे करके किया जाता है। झुमैलो नृत्य के दौरान गाये जाने वाले गीतों को झुमैलो गीत कहा जाता है। इन गीतों के प्रत्येक पद के अंत में झुमैलो शब्द की पुनरावृत्ति होती है।

थड़िमा या थड्या नृत्य

यह नृत्य गढ़वाल क्षेत्र में लास्य शैली के सबसे सुन्दर नृत्य गीतों में से एक है। यह भोटिया जाति के नृत्य हैं, जिन्हे बसंत पंचमी से झैँता या विषुवत संक्रान्ति (बिखोत) तक किया जाता है। गांव की स्त्रियाँ तथा मायके आई हुयी विवाहित लड़कियाँ घर के थाड़ (आगन या चौक) में इस नृत्य को बहुत ही उत्साहपूर्वक करती हैं। इस नृत्य के दौरान गाये जाने वाले गीतों को थड़िया यह गीत कहा जाता है।

छोलिया नृत्य

यह नृत्य कुमाऊँ क्षेत्र का सबसे प्रसिद्ध नृत्य है। यह गढ़वाल क्षेत्र के सरौं तथा पौणा नृत्य की भांति है। इस नृत्य को मुख्यतः विवाह, धार्मिक आयोजन तथा कृषि कुम्भ मेले में ढोल तथा तलवार के साथ किया जाता है।यह नृत्य नागराजा, नृ:सिंह तथा पाण्डवों की लीलाओं पर आधारित होता है। छोलिया नृत्य कुमाऊँ की शौका जनजाति में काफी प्रचलित रहा है। वर्तमान समय में इसका प्रचलन बढ़ रहा है। लोग विभिन्न शुभ अवसरों पर इस नृत्य का आयोजन कर रहे हैं। यह नृत्य स्थानीय कलाकारों के लिए रोजगार का साधन भी बनता जा रहा है।

मयूर नृत्य

वास्तव में यह घसियारी महिलाओं के नृत्यगीत हैं। पहाड़ की महिलाओं का जीवन अत्यंत परिश्रम भरा होता है। उन्हें घर तथा कृषि सम्बंधी कार्यों के अतिरिक्त वनों से लकड़ी तथा घास भी लानी पड़ती है। ऐसे में इन कार्यों के दबाव को कम करने के लिए वे कई बार वनों में मयूर नृत्यगीतों का सहारा लेती हैं। इससे उनका मन हल्का एवं प्रफुल्लित हो जाता है।

बासंती नृत्य

बसंत ऋतु का हमारे जीवन में विशेष स्थान होता है। इस ऋतु की उमंग ही बासंती गीतों को जन्म देती है। तीव्र गर्मी के कम होने, पेड़-पौधों में नई कलियां एवं पुष्प खिलने तथा चारों ओर हरियाली छाने से उत्पन्न होने वाले भावों से वशीभूत होकर जो नृत्य किया जाता है, उसे बासंती नृत्य कहा जाता है।

भड़ौ या पवाड़ा नृत्य

वीरगाथाओं के लिए स्थानीय बोली में 'भड़ौ' शब्द का प्रयोग होता है और यह शब्द सम्भवतः भड़ (वीर) का विकृत रूप है। राज्य में अनेक वीर पुरूषों की वीर गाथाएं आज भी बड़े उत्साह के साथ गायी जाती हैं। उत्तराखण्ड के भड़ौ नृत्य में ऐतिहासिक और अनैतिहासिक वीरों की कथाएँ प्रस्तुत की जाती हैं। पवाड़ा नृत्य के दौरान गाये जाने वाले गीतों को पवाड़ा गीत कहा जाता है।

पाण्डव नृत्य

पाण्डवों का उत्तराखण्ड से गहरा सम्बंध है। महाभारत से ज्ञात होता है कि पाण्डवों ने अपने वनवास का अधिकांश काल इस भूमि में ही व्यतीत किया था। उत्तराखण्ड में विभिन्न स्थान, गाथाएं, घटनाएं, त्यौहार, उत्सव नृत्य, गीत आदि पाण्डवों के जीवन प्रसंगों से जुड़े हैं। गढ़वाल का लोकप्रिय पाण्डव नृत्य भी इसका एक प्रमुख उदाहरण है।

यह नृत्य पाण्डवों के जीवन प्रसंगों पर आधारित है।यह नृत्य मुख्यतः नवरात्री में 09 दिन तक खुले मैदान में किया जाता है। इस नृत्य में विभिन्न प्रसंगों के 20 लोक नाट्य होते हैं। इन वार्ताओं के गायन एवं नृत्य में ढोल के 32 तालों व सैकड़ों स्वर, लिपियों आदि का प्रयोग किया जाता है।

हारूल नृत्य

पाण्डवों का उत्तराखण्ड से गहरा सम्बंध रहा है। व महाभारत से ज्ञात होता है कि पाण्डवों ने अपने वनवास का अधिकांश काल इस भूमि में ही व्यतीत किया था। उत्तराखण्ड में विभिन्न स्थान, गाथाएं, घटनाएं, त्यौहार, उत्सव नृत्य, गीत आदि पाण्डवों के जीवन प्रसंगों से जुड़े हैं। जौनसारी जनजाति का हारूल नृत्य भी ऐसे ही एक नृत्य का उदाहरण हैं।  यह नृत्य पांडवों के जीवन प्रसंग पर आधारित है। ध्यातव्य है कि इसमें 'रमतुला वाद्ययंत्र' को अनिवार्य रूप से बजाया जाता है।

होली नृत्य

होली एक राष्ट्रीय पर्व है। यह पर्व भी शीत ऋतु के जाने एवं बसंत ऋतु के आगमन के स्वागत पर मनाया जाता है। इस दौरान लोग विभिन्न पकवानों, छाज, भांग के साथ विशेष शैली में जो, नृत्य करते हैं, उन्हें होली नृत्य कहा जाता है।

चांचरी नृत्य

यह नृत्य कुमाऊँ-गढ़वाल में बसंत ऋतु की चाँदनी रात में किया जाता है। इस नृत्य में मुख्य गायक स्त्री-पुरूषों द्वारा बनाए गए एक गोल घेरे के बीच हुड़की बजाते हुए नृत्य करता है। इस नृत्य को कुमाऊँ क्षेत्र में 'झोड़ा' कहते हैं। चांचरी की गति झोड़े की तुलना में धीमी होती है। चांचरी नृत्य के दौरान गाये जाने वाले गीतों को चांचरी गीत कहा जाता है। इन गीतों के विषय स्वतंत्र होते हैं।

घुघुती नृत्यगीत

घुघती त्यौहार के अवसर पर यह नृत्य किया जाता है। यह नृत्य मुख्यतः बच्चों के द्वारा किया जाता है। यह नृत्य विवाहित कन्याओं द्वारा भी किया जाता है।

तलवार नृत्यगीत

इसके नाम से ही स्पष्ट है कि यह नृत्य तलवार तथा अन्य अस्त्र-शस्त्रों की सहायता से किये जाते हैं। वस्तुतः यह नृत्य वीरों की युद्ध कला के प्रदर्शन के लिए किये जाते हैं।

केदार नृत्य

'केदार' शब्द का आशय भगवान शिव से है। अतः यह नृत्य भगवान शिव की स्तुति के लिए किया जाता है। 

घसियारी नृत्य

घसियारी का अर्थ है- घास काटने वाली महिलाएं।

देवभूमि में बड़ी संख्या में महिलाएं अपने मवेशियों के लिए घास काटने तथा ईधन के लिए लकड़ी लेने के लिए वनों में जाती हैं। यह महिलाएं अपने चारों ओर की हरियाली, सुन्दर पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों आदि को देखकर भाव विभोर हो जाती हैं और आनंदित होकर जो नृत्य करती हैं, उसे घसियारी नृत्य कहा जाता है।

छोपती नृत्यगीत

यह नृत्य रवांई-जॉनपुर का एक लोकप्रिय नृत्य है। यह नृत्य प्रणय की भावना से प्रेरित है। इस भावना से प्रेरित होकर इसमें विभिन्न संवाद किये जाते हैं। इस नृत्य के दौरान गाये जाने वाले गीतों को छोपती गीत कहा जाता है।

छपेली नृत्यगीत

यह नृत्य महिला और पुरूषों द्वारा जोड़ों में किया जाता है। महिलाएं अपने एक हाथ में रूमाल तथा दूसरे हाथ में दर्पण लेकर नृत्य करती हैं। पुरूष हुडुका, मंजिरा तथा बांसुरी आदि का प्रयोग करते हैं। यह एक प्रेम प्रधान नृत्य है। इस नृत्य के दौरान गाये जाने वाले गीतों को छपेली गीत कहा जाता है।

सरौं

यह युद्ध प्रधान नृत्य-गीत है। इसमें विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों से युद्ध की कलाओं का प्रदर्शन किया जाता है।

फौफती नृत्य

यह नृत्य शिशुओं तथा छोटे बालकों के मनोरंजन के लिए किये जाते हैं। यह पर्वतीय क्षेत्र के बालकों के मनोरंजन के प्रमुख साधन हैं।

भैला-भैला नृत्य

यह नृत्य दीपावली के अवसर पर किया जाता है। इस अवसर पर चीड़ की लकड़ी की मशाल बनायी जाती है, जिसे भैला कहा जाता है। इस भैला के साथ विभिन्न करतब करते हुए नृत्य किया जाता है।

डल्यों नृत्यगीत

श्री शिवानंद नौटियाल लिखतें हैं कि 'डल्या नृत्यगीतों का मात्र मूल विषय संसार में प्रत्येक वस्तु की क्षण-भंगरता की ओर इशारा करना होता है।'

जात्रा नृत्यगीत

यह धार्मिक नृत्यगीत हैं। देवभूमि उत्तराखण्ड में विभिन्न धार्मिक अवसरों पर देवयात्रा का आयोजन किया जाता है, जिन्हें दूयवोरा जात्रा कहा जाता है। श्रद्धालुगण इस यात्रा को करते समय जो नृत्य करते हैं, उन्हे जात्रा नृत्यगीत कहा जाता है।

बौछड़ों नृत्यगीत

श्री शिवानंद नौटियाल लिखते हैं कि 'इसमें पंजाब के भांगड़ा नृत्य की जैसी तन्मतया पाई जाती है। कार्तिक पूर्णमासी की रात्रि में इस नृत्य को बिनसर के आंचल में अत्यंत कुशलतापूर्वक सम्पन्न किया जाता है। बौछड़ों नृत्यगीत मस्ती और उन्मत्त स्वच्छंदता का द्योतक है। जहां कहीं भी वातावरण में उन्मुक्तता दिखाई दी, स्वछंद नर्तक मिले नहीं कि नृत्यगीत शुरू हो जाता है। कभी हास्य प्रधान गीत नृत्य के साथ गाये जाते हैं, तो कभी किसी सुन्दरी का सौन्दर्य का सौन्दर्य वर्णन बौछड़ों नृत्य का प्रिय विषय बन जाता है।"

दूढ़ा नृत्यगीत

प्राचीनकाल में विवाह सम्बंधी नियम अपेक्षाकृत सरल थे। कन्याओं को अपनी पसंद का वर चुनने के लिए उनका स्वयंवर रचाया जाता था। दूड़ा नृत्य में स्वयंवर सम्बंधी विषय को ही आधार बनाकर नृत्य किया जाता है।

तांदी नृत्यगीत

यह गढ़वाल का एक लोकप्रिय नृत्य है। इस नृत्य को विभिन्न शुभ अवसरों में तथा विशेषकर माघ माह में उत्तरकाशी तथा जौनपुर में किया जाता है। यह नृत्यगीत तात्कालिक घटनाओं, धार्मिक भावनाओं या प्रसिद्ध व्यक्तियों पर आधारित होते हैं। अतः इनकी प्रकृति स्वतंत्र होती है।

लामण नृत्यगीत

यह प्रेम प्रधान नृत्यगीत हैं। अतः यह गीत मुख्यतः प्रेमी-प्रेमिकाओं के मध्य होने वाले संवाद तथा भावनाओं की अभिव्यक्ति हैं। इन नृत्यगीतों में प्रेमी द्वारा अपनी प्रेमिका को रिझाने तथा अपने प्रेम की गहराई को समझाने का प्रयास किया जाता है।

सुई नृत्यगीत

इन नृत्यगीतों में नर्तक नाचते-नाचते अपनी कमर को मोड़ते हुए रोमांचकारी ढंग से फर्श या किसी अन्य स्थान पर रखी हुई सुई को अपने दांतों से उठाने का प्रयास करता है। इन नृत्यगीतों को ही सुई नृत्यगीत कहा जाता है। इन गीतों के समय नर्तक अपने हाथों में थाली रखकर उसे बड़े कलात्मक ढंग से घुमाता है। इन नृत्यगीतों के लिए कुशल नर्तक या नर्तकी की आवश्यकता होती है।

खुसौड़ा नृत्य

खुसौड़ा का शाब्दिक अर्थ है, 'खुश होना या खुशी-खुशी कोई कार्य करना'। खुसौड़ा गीत भी इसी भावना से प्रेरित हैं। यह नृत्यगीत किसी खुशी के अवसर किसी कार्य को सम्पन्न करते समय खुशी-खुशी किये जाते हैं।

छूड़ा नृत्य

यह विशिष्ट प्रकार के नृत्यगीत हैं। इनकी विषयवस्तु विशेष प्रकार की है, जिसकी प्रकृति उपदेशात्मक तथा नैतिकता से युक्त है।इन नृत्यगीतों में नवीन पीढ़ी को जीवन का सार बताते हुए अच्छी तथा बुरी बातों के मध्य भेद बताने का प्रयास किया जाता है।

बनजारा नृत्यगीत

यह नृत्यगीत बंजारों के जीवन पर आधारित होते हैं। जिस प्रकार बंजारों का जीवन अस्थायी होता है। उनके जीवन में नित नये अनुभव सम्मिलित होते हैं और उनमें जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण होता है। उन्ही भावों को इन नृत्यगीतों में सम्मिलित किया जाता है।

चैती नृत्यगीत

यह नृत्यगीत गढ़वाल के औजी जातियों के हैं। इस जाति के लोगों को देवालयों में ढोल दमाऊ, रणसिंघा आदि वाद्ययंत्रों को बजाने के लिए रखा जाता है। यह लोग जो नृत्यगीत चैत माह में प्रस्तुत करते हैं, उन्हें चैती नृत्यगीत कहा जाता है।

प्रभाति नृत्य

यह नृत्यगीत भी गढ़वाल के औजी जातियों के हैं, जिन्हें चैत माह में गाया जाता है। जब चैत का माह आरम्भ होता है, तो इस माह के स्वागत में चैत के प्रथम दिन प्रातःकाल इन नृत्यगीतों को किया जाता है।

श्याम कल्यणी

श्यामा कल्यणी भी गढ़वाल के औजी जातियों के नृत्यगीत हैं, जिन्हे चैत माह के प्रथम दिन देव उपासना हेतु संध्याकाल में किया जाता है।

चैती पसारा

यह भी गढ़वाल के औजी जाति के नृत्य हैं। इन नृत्यों का प्रयोग इस जाति के लोगों द्वारा अपने यजमानों के समक्ष किया जाता है। बदले में यजमान इन लोगों को दान-दक्षिणा प्रदान करते हैं।

धियाणा का चैतो पसारा

धियाणा का अर्थ होता है, विवाहित कन्या। जब यजमानों की विवाहित कन्या के घर में पुत्र जन्म या कोई अन्य शुभ कार्य होते हैं, तब औजि जाति के लोग शुभकामनाएं देने और बख्शीश लेने जाते हैं। इस अवसर पर वें चैतो पसारा नृत्य करते हैं।

कुलाचार नृत्य

यह चैती पसारा नृत्य का ही एक प्रकार है, जो औजी जाति के लोगों द्वारा अपने यजमानों के कुल का यशोगान करने तथा उनसे दान-दक्षिणा प्राप्त करने के लिये किये जाते हैं।

लांग नृत्यगीत

इस नृत्यगीत का प्रदर्शन बद्दी जाति के लोगों द्वारा किया जाता है। यह नृत्यगीत बांस के एक लम्बे लट्टे के ऊपर विभिन्न प्रकार के करतब करते हुए किया जाता है।

हुड़क्या नृत्यगीत

यह विभिन्न प्रकार के विषयों से सम्बंधित नृत्यगीत हैं, जो हुड़के की सहायता से गाये जाते हैं। इन नृत्यगीतों के विषय स्वतंत्र होते हैं।

शिव-पार्वती नृत्यगीत

यह नृत्यगीत भी बद्दियों द्वारा किये जाते हैं। इनके नाम से ही स्पष्ट है कि यह नृत्यगीत भगवान शिव एवं माता पार्वती के जीवन से सम्बंधित हैं।

सांपू नृत्य

गढ़वाल में भगवान कृष्ण नागराजा, नागर्जा, नाग या नगेलों के रूप में बहुत लोकप्रिय हैं। उत्तराखण्ड में प्राचीनकाल में नाग जाति का भी बहुत महत्व था। बद्दी जाति द्वारा नागर्जा के जीवन प्रसंग से सम्बंधित किये जाने वाले विभिन्न नृत्यगीतों को सांपू नृत्य कहा जाता है।

दीपक नृत्यगीत

सनातन धर्म में दीपक का अपना महत्व है। विभिन्न धार्मिक शुभ अवसरों पर दीपक जलाना एक अनिवार्य तथा शुभ प्रक्रिया है। दीपक को प्रकाश तथा हर्षोल्लास का प्रतीक माना जाता है। इसी भावना से प्रेरित होकर गढ़वाल में दीपक लेकर महिलाएं जो नृत्य करती हैं, उसे दीपक नृत्य कहा जाता है।

राधाखण्डी नृत्यगीत

यह नृत्यगीत भी बद्दी तथा मिरासी जातियों के लोगों द्वारा किये जाते हैं। इन नृत्यगीतों में कृष्ण तथा राधा की प्रेम लीलाओं का सुन्दर वर्णन किया जाता है, इसलिए इन्हे राधाखण्डी नृत्यगीत कहा जाता है।

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