भारत में ब्रिटिश शक्ति का विस्तार | Expansion of British power in India in Hindi

18वीं शताब्दी के मध्य में, भारत वास्तव में चौराहे पर खड़ा था। इस समय विभिन्न ऐतिहासिक शक्तियां गतिशील थीं, जिसके परिणामस्वरूप देश एक नई दिशा की ओर उन्

अंग्रेजों की भारत पर विजयः- संयोगवश या उद्देश्यपूर्ण

ऐतिहासिक शक्तियों एवं कारकों की समीक्षा करने, जिन्होंने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना में उनकी सफलता का नेतृत्व किया, के लिए यह आवश्यक है कि तत्कालीन भारत की राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक दशाओं और ब्रिटेन की वैश्विक साम्राज्यवादी व्यवस्था में भारत के एकीकरण की प्रक्रिया को समझा जाए और इसका विश्लेषण किया जाए।

इतिहासकार इस मूलभूत प्रश्न पर बहस करते हैं कि क्या ब्रिटिश की भारत विजय संयोगवश थी या इरादतन थी। जॉन सीले के नेतृत्व वाला समूह ब्रिटिश की भारत विजय को गैर-इरादतन और संयोगवश मानता है। यह कहता है कि ब्रिटिश भारत में केवल व्यापार करने के लिए आए थे और क्षेत्र पर कब्जा करने की उनकी कोई मंशा नहीं थी। वे न चाहते हुए भी भारतीयों द्वारा स्वयं उत्पन्न किए राजनीतिक संकट में फंस गए थे और भारतीय भू-क्षेत्रों को कब्ज़ा करने के लिए उन्हें बाध्य किया गया। दूसरी ओर इतिहासकारों का एक समूह इस बात से सहमत नहीं हैं और मानता है कि अंग्रेज भारत में एक व्यापक एवं शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना हेतु आए थे। उन्होंने इसके लिए एक सुनियोजित रणनीति एवं योजना बनाई और धीरे-धीरे साल-दर-साल इस पर काम किया।

British rule in India 

शायद शुरुआती दौर में, अंग्रेजों ने गैर-इरादतन रूप से क्षेत्रों को हासिल किया, लेकिन बाद में भारत भेजे जाने वाले अंग्रेज राजनीतिज्ञों एवं प्रशासकों में क्षेत्रों पर कब्जा करने और एक साम्राज्य स्थापित करने की इच्छा थी। ज्यूडिथ ब्राउन के अनुसार, अंग्रेजों के अपने राजनीतिक प्रभाव को विस्तृत करने के निर्णय के लिए कई कारक जिम्मेदार थे। अविलंब लाभ, प्रशासकों की वैयक्तिक महत्वकांक्षाएं, लालच और यूरोप में राजनीतिक घटनाक्रमों के प्रभाव कुछ ऐसे कारक थे जिन्होंने भारत में अंग्रेजों को उनका राजनीतिक क्षेत्र बढ़ाने के लिए प्रवृत्त किया।

इस प्रकार यह कहा जा सकता था कि 18वीं शताब्दी में, पश्चिमी यूरोपीय देशों ने अपने व्यापारिक एवं राजनीतिक हितों को सुनिश्चित करने के लिए वैश्विक क्षेत्रीय विस्तार के चरण का आरंभ किया था और उपनिवेशों की स्थापना की। अंग्रेजों की भारत विजय को इस वैश्विक राजनीतिक घटनाक्रम के एक हिस्से के तौर पर देखा जा सकता है।

भारत में ब्रिटिश काल की शुरुआत

18वीं शताब्दी के मध्य में, भारत वास्तव में चौराहे पर खड़ा था। इस समय विभिन्न ऐतिहासिक शक्तियां गतिशील थीं, जिसके परिणामस्वरूप देश एक नई दिशा की ओर उन्मुख हुआ। कुछ इतिहासकार इसे 1740 का वर्ष मानते हैं, जब भारत में सर्वोच्चता के लिए आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष की शुरुआत हुई। कुछ इसे 1757 का वर्ष मानते हैं, जब अंग्रेजों ने बंगाल के नवाब को प्लासी में परास्त किया। जबकि अन्य इसे 1761 का वर्ष मानते हैं, जब पानीपत के तीसरे युद्ध में अहमद शाह अब्दाली ने मराठाओं को परास्त किया। हालांकि, ये सभी काल क्रमागत सीमांकन कुछ हद तक मनमाने या स्वच्छंद हो सकते हैं क्योंकि राजनीतिक रूपांतरण, जो लगभग इस समय शुरू हुआ, को पूरा होने में लगभग 80 वर्षों का समय लगा।

यह भारतीय इतिहास में ऐसा समय था जब विभिन्न घटनाक्रम घटित हो रहे थे। यह उस समय स्वाभाविक नहीं था, जैसा आज प्रतीत होता है, कि मुगल साम्राज्य अपने अंतिम दौर में था, मराठा राज्य स्थितियों से उबर नहीं पाया, और कि ब्रिटिश सर्वोच्चता को टाला नहीं जा सका। फिर भी, परिस्थितियां, जिनके अंतर्गत ब्रिटिश को सफलता प्राप्त हुई थी, स्पष्ट नहीं थीं, और उनके (अंग्रेजों) द्वारा सामना किए गए कुछ गतिरोध गंभीर प्रकृति के नहीं थे। यह वह विरोधाभास है जो भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना की सफलता के कारणों को विचारणीय महत्व का विषय बना देता है।

ब्रिटिश रूल के सफलता के कारण

ब्रिटिश सफलता के कारणों की व्याख्या करते हुए, बी.एल. ग्रोवर कहते हैं कि लगभग एक शताब्दी तक, जब देश के विभिन्न हिस्सों में ब्रिटिश विजय प्रगति पर थी, उन्होंने कई कूटनीतिक और सैन्य प्रतिकूलताओं को झेला, जिसमें से अंत में वे विजयी होकर निकले। इस सफलता के कारणों में निम्नलिखित हैं-

1. ब्रिटिशर्स के पास आधुनिक अस्त्र-शस्त्र :- अंग्रेज अस्त्रों, सैन्य युक्तियों एवं रणनीति में सर्वोत्कृष्ट थे। 18वीं शताब्दी में भारतीय शक्तियों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले आग्नेयास्त्र बेहद धीमे एवं भारी थे और जिन्हें अंग्रेजों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले यूरोपीय बंदूकों एवं तोपों ने गति एवं दूरी दोनों ही लिहाज से बाहर कर दिया था। यूरोपीय पैदल सेना भारतीय अश्वारोही सेना की तुलना में तीन गुना अधिक तेजी से प्रहार कर सकती थी। यह एच है कि, कई भारतीय शासकों, जिसमें निजाम भी शामिल है, ने यूरोपीय हथियारों का आयात किया और यूरोपीय हथियारों को चलाने में अपने सैनिकों को प्रशिक्षित करने के लिए यूरोपीय अधिकारियों की सेवाएं लीं। लेकिन, दुर्भाग्यवश, भारतीय सैन्य अधिकारी एवं प्रशासक नौसिखिए के स्तर से कभी भी ऊपर नहीं उठ पाए और अंग्रेज अधिकारियों तथा उनके प्रशिक्षित सैनिकों की जरा भी बराबरी नहीं कर सके।

2. अंग्रेजों का सैन्य अनुशासनः- अंग्रेजों के सैन्य अनुशासन को उनकी सफलता का मुख्य कारण माना जाता है। वेतन के नियमित भुगतान की व्यवस्था और अनुशासन की कड़ी व्यवस्था ऐसे साधन जिनके माध्यम से कंपनी ने अधिकारियों एवं सैनिकों की सत्यनिष्ठा को सुनिशित किया। अधिकतर भारतीय शासकों के पास सेना के वेतन के नियमित भुगतान के लिए पर्याप्त धन नहीं था। मराठाओं ने राजस्व एकत्रित करने के लिए अपने सैन्य अभियानों को रोक दिया ताकि सैनिकों को वेतन का भुगतान किया जा सके। भारतीय शासक निजी परिवारजनों या किराये के सैनिकों की भीड़ पर निर्भर थे जो अनुशासन के प्रति जवाबदेह नहीं थे और जो विद्रोही हो सकते थे या जब स्थिति ठीक न हो तो विरोधी खेमे में जा सकते थे।

3. अंग्रेजो का मेधावी नेतृत्व:- प्रतिभाशाली नेतृत्व ने अंग्रेजों को एक अन्य लाभ प्रदान किया। क्लाइव, वारेन हेस्टिंग्ज, एलफिन्सटन, मुनरो, मारक्यूज, डलहौजी इत्यादि ने नेतृत्व के दुर्लभ गुण का प्रदर्शन किया। अंग्रेजों को सर आयरकूट, लार्ड लेक और आर्थर वेलेजली जैसे द्वितीय श्रेणी के नेताओं का भी लाभ प्राप्त हुआ जिन्होंने नेतृत्व पाने के लिए संघर्ष नहीं किया अपितु अपने देश की प्रतिष्ठा के लिए काम किया। भारत की तरफ भी हैदर अली, टीपू सुल्तान, चिन क्लिच खान, माधव राव सिंधिया और जसवंत राब होल्कर जैसे प्रतिभाशाली नेतृत्व था, लेकिन उनके साथ प्रायः द्वितीय पंक्ति के प्रशिक्षित कार्मिकों का अभाव रहा। सबसे बुरी बात थी कि, भारतीय नेतृत्व एक-दूसरे के खिलाफ युद्धरत रहते थे, जिस प्रकार ये अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते थे। इसके अतिरिक्त, वे निजी या राजवंशीय उन्नयन के लिए लड़ते थे। भारत की एकता एवं अखण्डता के लिए संघर्ष या युद्ध भावना की अभिप्रेरणा उनमें नहीं थी।

4. अंग्रेज़ो में राष्ट्रवादी अभिमानः- इन सबसे ऊपर, आर्थिक रूप से अग्रसर ब्रिटिश लोग भौतिक उन्नयन में विश्वास करते थे और अपने राष्ट्रीय गौरव पर अभिमान करते थे। जबकि कमजोर-विभाजित-स्वार्थी भारतीय अज्ञानता एवं धार्मिक पिछड़ेपन में डूबे हुए थे और उनमें अखण्ड राजनीतिक राष्ट्रवाद की भावना का अभाव था। भारतीयों के बीच इस सांसारिक या भौतिकवादी दृष्टि का अभाव भी अंग्रेजी कंपनी की सफलता का कारण था।

5. अंग्रेज़ो का वित्त में सुदृढ़ताः- अंग्रेज वित्तीय रूप से मजबूत थे क्योंकि कंपनी ने कभी भी व्यापार एवं वाणिज्य के कोण को धूमिल नहीं होने दिया। कंपनी की आय इतनी पर्याप्त थी कि उसने न केवल अपने अंशधारियों को अच्छा लाभांश प्रदान किया अपितु भारत में अंग्रेजों द्वारा लड़े गए युद्धों का वित्तीयन भी किया। इसके अतिरिक्त, इंग्लैंड शेष विश्व के साथ अपने व्यापार से भी अत्यधिक लाभ अर्जित कर रहा था। धन, वस्तुओं एवं व्यक्तियों के रूप में संसाधनों की एक बड़ी राशि अंग्रेजों को जरूरत के समय उपलब्ध थी, जिसका श्रेय उनकी समुद्री शक्ति के रूप में सर्वोच्चता को भी जाता है।

6. असैनिक अनुशासन:- कंपनी के अधिकारियों एवं सैनिकों का असैनिक अनुशासन एक अन्य कारक था। उन्हें उनकी विश्वसनीयता एवं कौशल न कि वंशागत त या या जाति और कुल के आधार पर कार्य सौंपे जाते थे। वे स्वयं कड़े अनुशासन के अधीन थे और उद्देश्यों के प्रति जागरूक थे। इसके विपरीत, भारतीय प्रशासक और सैन्य अधिकारी अकसर गुणों एवं योग्यता की उपेक्षा करते हुए जाति एवं व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर नियुक्त किए जाते थे। इसके परिणामस्वरूप, उनकी क्षमता संदेहजनक थी और वे प्रायः अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने के चलते विद्रोही एवं विश्वासघाती हो जाते थे।

अंग्रेजों की बंगाल पर विजय

ब्रिटिश विजय से पूर्व का बंगाल का प्रशासन

मुगल शासन के अधीन बंगाल एक सूबा था और बंगाल के नवाब इस पर शासन करते थे। बंगाल के नवाब बंगाल, बिहार और ओडिशा के शासक थे। 18वीं सदी में बंगाल से यूरोप को निरंतर कच्चे उत्पादों जैसे शोरा, चावल, नील, काली मिर्च, चीनी, रेशम, सूती कपड़े, कढ़ाई-बुनाई के सामान आदि का निर्यात होता था। प्रारंभिक 18वीं सदी में ब्रिटेन को एशिया से होने वाले आयात का 60 प्रतिशत सामान बंगाल से ही जाता था। बंगाल की व्यापारिक क्षमताएं ही अंग्रेजों के द्वारा इस प्रदेश में ली जाने वाली रुचि का स्वाभाविक कारण थीं। वर्ष 1700 ई. में मुर्शिद कुली खां, बंगाल का दीवान नियुक्त हुआ और मृत्यु पर्यन्त (1727 ई. तक) बंगाल की बागडोर संभाले रहा। इसके बाद उसके दामाद शुजा ने चौदह वर्ष तक बंगाल पर शासन किया। इसके बाद एक वर्ष के अल्प समय के लिए शासन मुर्शिदकुली खां के अयोग्य बेटे के हाथ में आ गया, लेकिन शीघ्र ही अलीवर्दी खां ने उसका तख्ता पलटकर सत्ता हथिया ली और 1756 तक बंगाल पर शासन किया। ये तीनों ही शासक बड़े समर्थ और सबल थे। इनके शासनकाल में बंगाल अत्यधिक समृद्ध हो गया। बंगाल में इस समृद्धि के कई अन्य कारण भी थे। जैसे-एक ओर जहां शेष भारत, सीमावर्ती युद्धों, मराठा आक्रमणों और जाट विद्रोह से ग्रस्त था और उत्तरी भारत नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों से विनष्ट हो चुका था, वहीं बंगाल में कुल मिलाकर शान्ति बनी रही।

इस काल में बंगाल में विदेशी व्यापार की भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। 18 वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में 1706 ई. से 1756 ई. तक, बंगाल ने अपने निर्यात के द्वारा लगभग 6.5 करोड़ रुपए की चांदी अर्जित की और लगभग 2.3 करोड़ रुपए के सौदे किए। कलकत्ता की आबादी 1706 में 15,000 थी, जो 1750 में बढ़कर एक लाख तक पहुंच गई और ढाका तथा मुर्शिदाबाद घनी आबादी वाले नगर बन गए। लेकिन समृद्धि की इस जगमगाहट के पीछे की दशा इतनी अधिक निराशाजनक और नाजुक थी कि ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह समृद्धि कच्ची ईंटों की दीवार की भांति है, जो तूफान के एक छोटे से झोंके से भरभराकर समुद्र में विलीन हो जाएगी।

अंग्रेजी कंपनी को विशेषाधिकार देने से बंगाल प्रांत का प्रशासन बेहद नाराज था क्योंकि इससे प्रांतीय राजकोष को बड़ी हानि उठानी पड़ रही थी। इसलिए अंग्रेजी व्यापारिक हितों एवं बंगाल सरकार के बीच यह मतभेद का मुख्य कारण बना। 1757 और 1765 की अल्पावधि के बीच शक्ति का हस्तांतरण धीरे-धीरे बंगाल के नवाबों से अंग्रेजों को होने लगा जैसाकि अंग्रेजों ने बंगाल के नवाबों को दो निर्णायक युद्धों में परास्त किया।

सिराज-उद-द्दौला और अंग्रेज

1740 ई. में सरफराज खां को अपदस्थ कर अलीवर्दी खां बंगाल का नवाब बना। वह योग्य शासक था, पर उसका पूरा शासनकाल मराठों से युद्ध में ही गुजर गया। 1756 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। उत्तराधिकार के लिए कोई पुत्र न होने के कारण उसकी तीन पुत्रियों के परिवार से किसी को नवाब बनना था। विवाद हुआ, षड्यंत्र हुए। अंततः सिराजुद्दौला (छोटी बेटी का लड़का) नवाब बना। बड़ी बेटी घसीटी बेगम, राजवल्लभ, और एक अन्य बेटी के पुत्र शौकतजंग की शत्रुता का सामना तो सिराज को करना ही पड़ा; इधर कम्पनी की उद्दण्डता भी बहुत बढ़ गई थी। 1757 से 1765 तक बंगाल का इतिहास नवाब से अंग्रेजों को राजनैतिक सत्ता के क्रमिक हस्तातरण का इतिहास है। इस संक्षिप्त 8 वर्षों के समय के दौरान बंगाल में तीन नवाबों सिराजउद्दौला, मीर जाफर और मीर कासिम ने शासन किया।

सिराजुद्दौला के शत्रुः- सिराजुद्दौला 1756 में अलवर्दी खां के बाद बंगाल का नवाब बना। वह इतना अविवेकी था कि राज्य की उन समस्याओं का सामना ही नहीं कर सकता था, जिनके समाधान के लिए उसे नवाब बनाया गया था। सिराज के उत्तराधिकार का विरोध उसकी चाची घसीटी बेगम तथा पूर्णिया के सूबेदार उसके चचेरे भाई शौकत जंग ने किया। नवाब के दरबार में जगत सेठ, अमीचन्द, राजवल्लभ, राय दुर्लभ, मीर जाफर एवं कुछ अन्य लोगों का एक शक्तिशाली गुट था और उन्होंने भी सिराज के उत्तराधिकार का विरोध किया।

मई 1756 में सिराज ने पूर्णिया के विद्रोही नवाब का दमन करने के लिए पूर्णिया की ओर प्रस्थान किया। परन्तु जब उसे कलकत्ता में अंग्रेजों के अवज्ञाकारी और उद्दंड व्यवहार का पता चला, तो वह राजमहल से ही वापस लौट आया। उसने कलकत्ता पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। तदुपरान्त उसने पूर्णिया के विरुद्ध प्रभावशाली ढंग से सैनिक अभियान किया। शौकत जंग पराजित हुआ और (अक्टूबर, 1756 में) मनिहारी के युद्ध में मारा गया। सिराज के सौभाग्य का सितारा अब अपने चरमोत्कर्ष पर था। इसी समय उसे बंगाल, बिहार और उड़ीसा की सूबेदारी पर उसकी नियुक्ति का अनुमोदनकारी शाही (मुगल) फरमान प्राप्त हुआ।

अंग्रेजों के साथ शत्रुता के कारणः- सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के मध्य विवाद और विच्छेद का वास्तविक कारण अंग्रेजों द्वारा बंगाल में अपनी-अपनी स्थिति एवं प्रभाव को सुदृढ़ करने से सम्बन्धित उनके प्रयास थे। अंग्रेजों ने सिराज की आंतरिक कमजोरी का लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने कलकत्ते की किलेबंदी शुरू कर दी, राजवल्लभ के पुत्र को अपने किले में शरण दे दी, दस्तक का तो वे दुरुपयोग कर ही रहे थे-अपने क्षेत्र में वे बंगाल की सम्प्रभुता के विरुद्ध भारतीय वस्तुओं पर भारी महसूल वसूल रहे थे। सिराज ने अंग्रेजों से इन सबके लिए विरोध जताया। परन्तु, अंग्रेज, जो कि दक्षिण भारत में फ्रांसीसियों के विरुद्ध अपनी सफलता से उत्साहित थे, सिराज के आदेश से विचलित नहीं हुए। अस्तु, सिराज ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया-पहले कासिम बाजार पर और फिर 20 जून, 1756 ई. को फोर्ट विलियम पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों ने फुल्ता द्वीप पर जाकर शरण ली।

इसी किले की एक कोठरी में कई अंग्रेजों को कैदी बनाकर बंद कर दिया गया, जिससे कई अंग्रेज मारे गए। काल कोठरी से जिंदा निकले अंग्रेजों को सिराजुद्दौला ने मुक्त कर दिया। सिराजुद्दौला के अंग्रेजों से अप्रसन्न रहने का एक कारण यह भी था कि न्यायदंड के 'भय से भागे राजवल्लभ के पुत्र कृष्णदास को अंग्रेजों ने शरण दे रखी थी।

सिराजुद्दौला की जवाबी का वाई से अंग्रेज कलकत्ता से भागकर फुल्टा द्वीप पर पहुंचे। जब बंगाल से अंग्रेजों के निष्कासन की खबर मद्रास पहुंची तो वहां से एडमिरल वाटसन और कर्नल क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना को कम्पनी की सहायता हेतु बंगाल की ओर भेजा गया। अंग्रेजों ने जनवरी 1757 ई. में फिर से कलकत्ता पर अधिकार कर लिया और मार्च 1757 ई. में चंद्रनगर पर आक्रमण कर उस पर भी अपना अधिकार कर लिया। सिराजुद्दौला अल्पवयस्क होने के कारण इन परिस्थितियों से अच्छी तरह निबट नहीं सका और उसने अंग्रेजों से अलीनगर की संधि भी कर ली। अंग्रेजों ने इस संधि की अवहेलना की और 12 जून को षड्यंत्रपूर्वक दरबारियों से मिलकर क्लाइव के नेतृत्व में एक सेना भेजी। सिराजुद्दौला ने भी अंग्रेजों का मार्ग रोकने के लिए सेना एकत्रित की, लेकिन उसके सेनापति अंग्रेजों से मिल चुके थे। 23 जून 1757 को प्लासी का युद्ध आरंभ हुआ। इस प्रकार सिराज-उद-दौला के शासनकाल में कुछ निश्चित कारणों ने अग्रेजों और उसके बीच रिश्तों को तनावपूर्ण कर दिया जो निम्न हैं।

(A)नवाब की आज्ञा के बिना अंग्रेजी कंपनी द्वारा कलकत्ता की किलेबंदी,

(B)कंपनी को दिए गए व्यापार अधिकारों का इसके अधिकारियों के द्वारा अपने व्यक्तिगत व्यापार के लिए दुरुपयोग किया गया।

(C)कंपनी ने कलकत्ता में राजवल्लभ के पुत्र कृष्णदास को शरण दी और वह नवाब की इच्छा के विरुद्ध विशाल सरकारी धन को लेकर भाग गया।

इन कारणों से नवाब सिराज-उद-दौला केकी के साथ नाराज था। कंपनी इस बात को लेकर सिराज-उद-दौला के बारे में चिंतित हो गई थी क्योंकि कंपनी के अधिकारियों को संदेह हुआ कि सिराज बंगाल में फ्रांसीसियों के साथ गठजोड़ करके कंपनी के अधिकारों में कटौती कर देगा। अंग्रेजों के कलकत्ता किले पर सिराज के आक्रमण ने खुले संघर्ष को तीव्र कर दिया।

अलीनगर की संधि(1757)

यह संधि प्लासी युद्ध के पहले बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच फरवरी, 1757 को हुई थी। इसमें अंग्रेजों का प्रतिनिधित्व क्लाइव और वाटसन ने किया था। अंग्रेजों द्वारा कलकत्ता पर पुनः अधिकार कर लेने के बाद यह संधि की गई थी। इस संधि के द्वारा निम्नलिखित शर्तों के अधीन ईस्ट इंडिया कम्पनी तथा सिराजुद्दौला के बीच सहमति हुई थी-ईस्ट इण्डिया कम्पनी को मुगल बादशाह के फरमान के अनुसार व्यापार की सुविधाएं फिर से दे दी गई; कलकत्ता पर अधिकार करने में अंग्रेजों की जो क्षति हुई उसका हर्जाना नवाब को देना पड़ा; दोनों पक्षों ने भविष्य में शांत बनाए रखने का वादा किया; अंग्रेजों को कलकत्ता में सिक्के ढालने का अधिकार प्राप्त हो गया। अलीनगर की संधि के शीघ्र बाद ही क्लाइव ने चंद्रनगर पर आक्रमण करके उन पर भी अधिकार कर लिया। इस संधि का महत्त्व इसलिए भी है कि उग्रेजों ने सिराजुद्दौला के खिलाफ युद्ध के लिए तात्कालिक कारण के रूप में अलीनगर की संधि के उल्लंघन को ही मुद्दा बनाया था।

प्लासी का युद्ध(23 जून, 1757)

प्लासी की लड़ाई  ई. को बंगाल के नवाब सिराज-उद-द्दौला की सेना और रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के बीच हुई। सिराजुद्दौला की सेना की संख्या लगभग 50000 थी तथा अंग्रेजों की सेना की संख्या मात्र 3200 थी। परंतु, सिराजुद्दौला के सेनापति मीर जाफर के षड्यंत्र में शामिल होने के कारण सेना के एक बड़े हिस्से ने युद्ध में भाग नहीं लिया। जब सिराजुद्दौला को पता चला कि उसके बड़े-बड़े सेनानायक मीर जाफर तथा दुर्लभराय विश्वासघात कर रहे हैं तो यह अपनी जान बचाकर युद्ध क्षेत्र से भाग गया। युद्ध क्षेत्र से भागकर सिराजुद्दौला मुर्शिदाबाद पहुंच गया और फिर वहां से अपनी पत्नी के साथ पटना भाग गया। कुछ समय पश्चात् मीर जाफर के पुत्र ने सिराजुद्दौला की हत्या कर दी। इस प्रकार अंग्रेजों का षड्यंत्र सफल रहा।

मीर जाफर एवं मीर कासिम तथा अंग्रेज

मीर जाफरः- मीर जाफर बंगाल का नया नवाब बना। प्लासी की लड़ाई से पूर्व ही क्लाइव ने मीर जाफर को नवाब का पद देने का वायदा किया था। यह सिराजुद्दौला के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता का उपहार था। कम्पनी को नवाब ने अपनी कृतज्ञता के रूप में बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा में मुक्त व्यापार की अनुमति प्रदान कर दी। कलकत्ता के पास 24 परगना की जमींदारी भी अंग्रेजों को मिल गई। ब्रिटिश व्यापारियों एवं अधिकारियों को निजी व्यापार पर भी कर से मुक्ति मिल गई। ये सारी बातें तो सार्वजनिक रूप में हुई। मीर जाफर को अपने अंग्रेज मित्रों के द्वारा किये गये समर्थन के लिए भारी रकम अदा करनी पड़ी, परन्तु मुर्शिदाबाद के सरकारी कोष में क्लाइव और उसके अन्य साथियों की मांगों को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त धन न था। मीर जाफर ने अंग्रेजों को नजराने एवं हर्जाने के रूप में लगभग 17,50,000 रुपये अदा किये। मीर जाफर जैसे ही सत्तासीन हुआ उसने तुरन्त निम्नलिखित गंभीर समस्याओं का सामना किया।

1. मिदनापुर के राजा राम सिन्हा तथा पूर्णिया के अली खां जैसे जमीदारों ने उसे अपना शासक मानने से इंकार कर दिया।

2. उसको अपने कुछ अधिकारियों विशेषकर दुर्लभराय की वफादारी पर संदेह था। उसे विश्वास था कि दुर्लभराय ने जमींदारों को उसके विरुद्ध विद्रोह के लिए उकसाया था। परंतु दुर्लभराय क्लाइव की शरण में था, इसलिए वह उसको छू भी न सका। 

3. मुगल बादशाह का पुत्र जो बाद में शाह आलम के नाम से जाना गया ने बंगाल के सिंहासन पर अधिकार करने का प्रयास किया।

4. अंग्रेजी कंपनी का ऐसा विचार था कि मीर जाफर, डच कंपनी के सहयोग से बंगाल में अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव में कटौती करने की कोशिश कर रहा था।

इस बीच जाफर के पुत्र मीरान की मृत्यु के कारण उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर फिर एक विवाद पैदा हो गया। मीरान के पुत्र और मीर जाफर के दामाद मीर कासिम के बीच इसके लिए संघर्ष हुआ और कलकत्ता के नये गवर्नर वान्सिटॉर्ट ने मीर कासिम का पक्ष लिया। वान्सिटॉर्ट के साथ एक गुप्त समझौते के द्वारा मीर कासिम कंपनी को आवश्यक धन अदा करने के लिए इस शर्त पर सहमत हुआ, कि यदि वे बंगाल के नवाब के लिए उसके दावे का समर्थन करें।

मीर कासिमः- मीर कासिम अलीवर्दी खां के उत्तराधिकारियों में सबसे योग्य था तथा अंग्रेजों की चाल भलीभांति समझता था। इसलिए सत्ता को प्राप्त करने के बाद मीर कासिम ने दो महत्वपूर्ण कार्य किए।अपनी पसंद के अधिकारियों के साथ उसने नौकरशाही का पुनर्गठन किया और सेना के कौशल तथा क्षमता को बढ़ाने के लिए उसमें भी सुधार किया। कलकत्ता में स्थित कंपनी से सुरक्षित दूरी को बनाये रखने के लिए मीर कासिम ने अपनी राजधानी को मुर्शिदाबाद से मुंगेर में हस्तांतरित कर दिया। फिर, उसने व्यापार में कम्पनी द्वारा की जाने वाली अनियमितताओं के विरुद्ध कदम उठाने शुरू किए। उसने शाही फरमान के वैयक्तिक उपयोग पर कड़ी आपत्ति की। 

1762 ई. के अंत में मुंगेर में अंग्रेज प्रतिनिधि वान्सिटॉर्ट ने मीरकासिम से संधि की। इसमें अंग्रेजों से ली जाने वाली चुंगी की राशि 9 प्रतिशत रखी गई। पर, कलकत्ता की काउंसिल ने इस संधि को अस्वीकार कर दिया। मुक्त व्यापार वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे। मीर कासिम जब इस बात से अवगत हुआ, तब उसने एक क्रांतिकारी कदम उठाते हुए भारतीय व्यापारियों को भी कर मुक्त व्यापार करने की आज्ञा दे दी। अंग्रेजों ने मीर कासिम के इस कदम को अपने लिए अपमानजनक माना। 9 जुलाई 1763 को बर्दवान के निकट कहवा में, 2 अगस्त 1763 को मुर्शिदाबाद जिले में गीरिया में तथा 4-5 सितम्बर 1763, को राजकमल के निकट उद्दौनला में अंग्रेजों के हाथों पराजित होने के बाद मीर कासिम मुंगेर की तरफ भागा और तदुपरान्त पटना की ओर। मीर कासिम अंग्रेजों से बंगाल को हासिल करने के विचार से अवध की ओर भागा और अवध के नवाब शुजा-उद-दौला और मुगल शासक शाह आलम द्वितीय के साथ एक संधि की।

बक्सर का युद्ध (1764)

अवध आकर मीर कासिम ने वहां के नवाब शुजाउद्दौला और शरणार्थी मुगल शहंशाह, शाह आलम द्वितीय के साथ मिलकर एक संघ बनाया। शीघ्र ही शक्ति-परीक्षण भी हो गया। 22 अक्तूबर, 1764 ई. को बक्सर में युद्ध, प्लासी की तर्ज पर नहीं, बिल्कु तैयारी और अपनी-अपनी क्षमता के साथ हुआ। इस युद्ध में अंग्रेजों ने अपने एल कौशल का परिचय दिया। दक्षिण में फ्रेंच सेना के विरुद्ध उनके अभियानों के अनुभव काम आए। यांडीवाश में 1760 ई. में अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों को करारी मात दे दी थी। मीर कासिम का संघ बुरी तरह पराजित हुआ। इस युद्ध में उत्तर भारत की प्रत्येक संभावनाओं को अंग्रेजों ने कुचल दिया और मुगल शक्ति की बची हुई साख भी मूल में मिल गई। युद्ध के बाद 1765 ई. में क्लाइव दूसरी बार बंगाल का गवर्नर बनकर लौटा। उसने बक्सर युद्ध के समझौते के मसौदे तैयार किए, मुगल शहंशाह से बंगाल बिहार व उड़ीसा की दीवानी प्राप्त कर ली।

परन्तु, क्लाइव के आने से पहले मीर जाफर की मृत्यु हो चुकी थी (फरवरी, 1765 ई.) और उसके बेटे नजीमुद्दौला को अंग्रेजों ने नवाब की गद्दी पर बिठाकर उसके साथ संधि कर ली थी। नवाब की सेना प्रायः भंग ही कर दी गई थी और बंगाल में एक नायब सूबेदार का प्रावधान किया गया, जिसकी नियुक्ति कम्पनी द्वारा होनी थी। मोहम्मद रजा खां बंगाल का पहला और अंतिम नायब सूबेदार बना।

इलाहाबाद की संधि (1765)

1765 में बंगाल के गवर्नर के रूप में क्लाइव वापस आया। उसने स्वयं को अपूर्ण कार्य को पूरा करने अर्थात् वह अंग्रेजों को बंगाल में सर्वोच्च राजनैतिक शक्ति बनाने में जुट गया। उसने 1765 में दो संधियां - एक मुगल शासक शाह आलम द्वितीय के साथ और दूसरी अवध के नवाब के साथ-इलाहाबाद में कीं।

A. अवध के साथ संधिः- नवाब और अंग्रेजों के बीच हुई संधि के अंतर्गत नवाब इलाहाबाद एवं कोरा शाह आलम द्वितीय को देने; कंपनी को 50 लाख रुपए युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में देने; बलवंत सिंह, बनारस का जमींदार, को उसकी एस्टेट का पूर्ण अधिकार देने; और जरूरत के समय कंपनी को सैन्य सहायता देने पर सहमत हुए। बदले में नवाब के अधिकार क्षेत्र को स्वीकार किया गया। कंपनी उसकी सीमाओं की रक्षा करने हेतु सैनिक मदद देने पर भी राजी हुई।

B. शाह आलम द्वितीय के साथ संधिः- शाह आलम द्वितीय और अंग्रेजों के बीच संधि के अंतर्गत, निम्न निर्णय लिए गए।

1. शाह आलम द्वितीय कंपनी के संरक्षण में आ गया था।

2.इलाहाबाद और कारा, नवाब द्वारा दिए हुए, मुगल शासक को सौंप दिए गए। 

3. बादशाह द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा की दीवानी प्रदान कर दी गई। इसके लिए कंपनी द्वारा बादशाह को वार्षिक 26 लाख रुपए का भुगतान करना निर्धारित किया गया।

4. अंग्रेजों को दीवानी के अधिकार और बंगाल के राजस्व या वित्तीय प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान कर दिया गया।

5. मुगल शासक लिखित प्रांतों में निजामत (प्रशासनिक) कार्यों को पूरा करने के लिए कंपनी को 53 लाख रुपए देने पर सहमत हुआ।

सुरक्षा, कानून एवं व्यवस्था और न्याय के प्रशासन का उत्तरदायित्व नवाबों के हाथों में था। लेकिन बक्सर के युद्ध के पश्चात् नवाबों की सैनिक शक्ति वास्तव में मृतप्रायः हो गई थी। कंपनी को दीवानी मिल जाने के बाद नवाबों की शक्ति पूर्णतः समाप्त हो गई।

प्लासी एवं बक्सर के युद्धों का महत्व

अंग्रेजों ने प्लासी (1757) और बक्सर (1765) के दोनों युद्धों में निर्णायक विजय प्राप्त करके बंगाल में अपनी राजनीतिक सर्वोच्चता स्थापित की। कुल मिलाकर अंग्रेजों की इन दोनों लड़ाइयों में विजय के अतिरिक्त उनका अपना कुछ निश्चित महत्व था। प्लासी युद्ध का महत्वः प्लासी की लड़ाई में अंग्रजों की विजय का बंगाल के इतिहास पर विशेष प्रभाव हुआ।  

1. अंग्रेजों की इस विजय से बंगाल के नवाब की स्थिति कमजोर पड़ गई भले ही यह विजय विश्वासघात या अन्य किसी साधन से प्राप्त की गई हो।

2. बाह्य रूप से सरकार में कोई अधिक परिवर्तन नहीं हुआ था और अभी भी नवाब सर्वोच्च अधिकारी था। लेकिन व्यावहारिक रूप से कंपनी के प्रभुत्व पर निर्भर था और कंपनी ने नवाब के अधिकारियों की नियुक्ति में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। 

3. नवाब के प्रशासन की आंतरिक कलह स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगी और अंग्रेजों के साथ मिलकर विरोधियों के द्वारा किए गए षड्यंत्र ने अंततः प्रशासन की शक्ति को कमजोर किया। 

4. वित्तीय उपलब्धि के अतिरिक्त अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने फ्रांसीसी और डच कंपनियों को कमजोर बनाकर बंगाल के व्यापार पर सफलतापूर्वक अपनी इजारेदारी को स्थापित कर लिया।

(A) बक्सर युद्ध का महत्वः- बक्सर की लड़ाई के माध्यम से अंग्रेजों ने बंगाल पर पूर्ण राजनीतिक नियंत्रण स्थापित कर लिया। वास्तव में, हस्तांतरण की इस प्रक्रिया का प्रारंभ प्लासी की लड़ाई से हुआ था और इसकी चरम परिणति बक्सर के युद्ध में हुई।

बक्सर की लड़ाई ने बंगाल नवाब के भाग के सूर्य को अस्त कर दिया और अंग्रेजों का बंगाल में एक शासक शक्ति के रूप में उदय हुआ। मीर कासिम ने बादशाह शाह आलम और अवध के नवाब शुजा-उद-दौला के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध सफलतापूर्वक एक संघ का गठन किया। यह संघ अंग्रेजों के सम्मुख असफल रहा। इस युद्ध में अंग्रेजों की जीत ने ब्रिटिश शक्ति की सर्वोच्चता को सिद्ध कर दिया और उनके विश्वास को अधिक सशक्त किया। यह विजय केवल अकेले मीर कासिम के विरुद्ध न थी अपितु गुगल बादशाह और अवध के नवाब के विरुद्ध भी थी। इस विजय ने भारत में अंग्रेजों के शासन की स्थापना का मार्ग दृढ़ कर दिया।

इस प्रकार प्रारंभिक स्तर पर अंग्रेजों की रुचि बंगाल के संसाधनों का और बंगाल की व्यापारिक क्षमताओं का उपयोग करके एशिया के व्यापार पर अपनी इजारेदारी कायम करना था। ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके अधिकारियों की बढ़ती वह व्यापारिक रुचि थी जिसके कारण नवाबों के साथ संघर्ष ने जन्म लिया। बंगाल की राजनीति में अंतर्निहित कमजोरी ने अंग्रेजों को नवाब के विरुद्ध युद्ध में विजय प्राप्त करने में बड़ी मदद की। विभिन्न गुटों के शासकों से अलगाव ने बाह्य शक्तियों को व्यवस्था तोड़ने को प्रेरित किया।

बंगाल में द्वैध शासन (1765-72)

बक्सर के युद्ध के पश्चात्, रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन की शुरुआत की जिसमें दीवानी (राजस्व वसूलने) और निजामत (पुलिस एवं न्यायिक कार्य) दोनों कंपनी के नियंत्रण में आ गए। कंपनी ने दीवान के रूप में दीवानी अधिकारों का और डिप्टी सूबेदार को नियुक्त करके निजामत अधिकारों का प्रयोग किया। कंपनी ने मुगल शासक से दीवानी कार्य हासिल किए और निजामत कार्य बंगाल के सूबेदार से प्राप्त किए। द्वैध शासन इसलिए कि प्रशासनिक दायित्व तो बंगाल के नवाब पर था, जबकि राजस्व वसूली का दायित्व ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर। प्रशासन की रीढ़ अर्थ या वित्त होता है, किंतु 1765 ई. के अगस्त महीने में स्थापित द्वैध शासन व्यवस्था के अनुसार वित्त अर्थात् कर वसूली का अधिकार कम्पनी को मिला, जबकि प्रशासन नवाब के हाथों में बने रहने दिया गया। सबसे बड़ी बात यह है कि नवाब और कम्पनी दोनों की अलग-अलग स्वतंत्र सत्ता थी।

दीवानी का अधिकार प्राप्त हो जाने से कम्पनी की स्थिति में आमूल परिवर्तन हो गया। दीवानी का कार्य मालगुजारी के साथ-साथ आंशिक स्तर पर न्याय करना भी था। रॉबर्ट क्लाइव ने दीवानी का भार बंगाल में मुहम्मद रजा खां तथा बिहार में राजा सिताब राय नामक दो भारतीय अधिकारियों को सौंपा। प्रमुख दीवानी कार्यालय मुर्शिदाबाद और पटना में स्थापित किए गए। शासन-प्रबंध और फौजदारी के मामलों को सुलझाने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल के नवाब को 53 लाख रुपए वार्षिक देना निश्चित किया। उस समय बंगाल का नवाब अल्पवयस्क था, इसलिए मुहम्मद रजा खां को नायब सूबेदार की संपूर्ण शक्ति सौंप दी गई और अब नवाब नाममात्र का शासक रह गया। इस तरह कम्पनी ने प्रशासन पर भी अपना प्रभावी नियंत्रण स्थापित कर लिया। 

बंगाल में द्वैध शासन के दोष

रॉबर्ट क्लाइव एक कुशल सेनापति के साथ-साथ अन्या प्रशासक और सफल कूटनीतिज्ञ भी था। उसने द्वैध शासन की स्थापना कर बंगाल, बिहार और उड़ीसा में अंग्रेजी शक्ति को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। इस शासन प्रबंध से कम्पनी की आय में 30 लाख पौण्ड की वृद्धि हो गई। किंतु, इस व्यवस्था के लाग होने के कुछ दिनों बाद ही इसमें अनेक प्रकार के दोष समाहित होने लगे। व्यवहारिक दृष्टि से द्वैध शासन का प्रबंध पूर्ण रूप से असफल रहा तथा इसके परिणाम बुरे निकले। एक ओर प्रशासन का पूरा दायित्व उठाने में नवाब असमर्थ था, क्योंकि एक तो वह आर्थिक दृष्टि से कमजोर था और दूसरे कम्पनी का उस पर नियंत्रण था, जबकि दूसरी ओर अंग्रेजी कम्पनी के हाथों में शक्ति थी, तो उसके पास प्रशासन का कोई दायित्व नहीं था।

कम्पनी ने अधिक-से-अधिक धन की उगाही को ही अपना लक्ष्य निर्धारित किया। प्रशासन ठीक चल रहा है या नहीं, इस बात की ओर ध्यान देने वाला कोई भी नहीं था। प्रशासन के प्रति नवाब और कम्पनी की इस उपेक्षा का शिकार जनता को होना पड़ा। नवाब की शक्ति सीमित होने के कारण कम्पनी के अधिकारी नवाब की आज्ञाओं का उल्लंघन करने लगे। राजस्व वसूली के लिए कम्पनी द्वारा नियुक्त जमींदारों ने कृषकों का अमानवीय शोषण आरंभ कर दिया। इससे जनसाधारण की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी। व्यापार की स्थिति भी बदतर हो गई। कम्पनी के अधिकारियों द्वारा किए गए अत्याचारों का नकारात्मक प्रभाव बंगाल के उद्योग-धंधों पर भी पड़ा-यहां का कुटीर उद्योग धीरे-धीरे बंद हो गया और शिल्पियों ने या तो अन्य व्यवसाय अपना लिए या बेरोजगारी का जीवन जीने के लिए बाध्य हो गए।

बंगाल में द्वैध शासन का अंतः-

 क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन प्रबंध की स्थापना को इसलिए महत्त्व दिया था, क्योंकि उस समय बंगाल-जैसे विशाल प्रांत का संपूर्ण शासन प्रबंध अपने हाथों में लेने के लिए कम्पनी के पास पर्याप्त अधिकारी नहीं थे। क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन को 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने समाप्त कर दिया। द्वैध शासन की समाप्ति का आयार हेस्टिंग्स ने इस व्यवस्था के दोषों के निराकरण को बताया। उसने बंगाल, बिहार और उड़ीसा के नायब दीवान मुहम्मद रजा खां और राजा सिताब राय को पदमुक्त कर दिया तथा शासन का संपूर्ण दायित्व अपने हाथों में ले लिया। हेस्टिंग्स ने मुर्शिदाबाद और पटना के राजस्व बोर्ड को समाप्त कर कलकत्ता में एक राजस्व परिषद् की स्थापना की। देशी समाहर्ताओं (कलक्टरों) के स्थान पर अंग्रेजी समाहर्ताओं की नियुक्ति की गई। हेस्टिंग्स ने बंगाल के नवाब को शासन कार्य से पूर्ण रूप से मुक्त कर दिया तथा उसके लिए 16 लाख रुपए वार्षिक की पेंशन निश्चित कर दी।

1773 ई. के रेग्युलेटिंग एक्ट से बंगाल के गवर्नर के पद को गवर्नर जनरल का पद बना दिया गया तथा भारत की तत्कालीन सभी प्रेसिडेंसियों का शासन भार उसके हाथों में सौंप दिया गया। 1773 ई. में वारेन हेस्टिंग्स को पहला गवर्नर जनरल बनाया गया। इस तरह से बंगाल, भारत में ब्रिटिश राजनीति का केंद्र बन गया और कम्पनी ने यहीं से अपने साम्राज्य विस्तार की प्रक्रिया शुरू की।

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